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शनिवार, 31 मार्च 2018

क्रोध


मन में 

दशकों से 

दबे हुए 

क्रोध को 

आजकल 

सडकों पर 

भीड़ बनकर 

चाहतों के शहर 

ख़्वाबों की गलियाँ 

विध्वंस करते हुए 

निकाला जा रहा है।  

मनुष्य को ईश्वर ने 

औरों की पीड़ा महसूसने 

ज़मीर को जाग्रत रखने..... 

दिल दिया 

समझने सांसारिक-खेल  

जीवन को बेहतर बनाने 

दिमाग़ भी दे दिया 

फिर क्यों रख देता है 

मनुष्य 

अपना दिल-ओ-दिमाग़ 

गिरवी 

किसी धूर्त की चौखट पर.....?  

और पलभर में 

तत्पर हो जाता है 

अराजक दंगाई बनने। 

आम लोग होते हैं तबाह

किसी की होती है पौ-बारह   

घायलों, पीड़ितों की चीत्कार 

दिल की सूनी कोठरी में 

कभी तो सुनाई देगी 

तब तक 

बहुत देर हो चुकी होगी......!

# रवीन्द्र सिंह यादव 

शनिवार, 24 मार्च 2018

बर्फ़


सुदूर पर्वत पर

बर्फ़ पिघलेगी

प्राचीनकाल से बहती

निर्मल नदिया में बहेगी

अच्छे दिन की

बाट जोहते 

किसान के लिए

सौग़ात बन जायेगी

प्यासे जानवरों का

गला तर करेगी

भोले पंछियों की 

जलक्रीड़ा में 

विस्तार करेगी 

लू के थपेड़ों की तासीर

ख़ुशनुमा करेगी

एक प्यासा बूढ़ा

अकड़ी अंजुरी में

भर पी जायेगा

जब बर्फ़ीला पानी

निकलेगी एक आह

कहते हुए -

आ रही है

मज़लूम  बर्फ़ 

रिहा होकर 

ज़ालिम के हाथ से

जा रही है 

विलय होने 

नदिया समुन्दर में 

अपना अस्तित्व खोने !

 बदलते रहेंगे मौसम 

फिर-फिर जमेगी बर्फ़ 

सजते रहेंगे ख़्यालात  

हर्फ़-दर-हर्फ़..!! 

#रवीन्द्र सिंह यादव 

बुधवार, 14 मार्च 2018

किसान के पैरों में छाले


सरकारी फ़ाइल में

रहती है एक रेखा,

जिनके बीच खींची गई है

क्या आपने देखा...?


सुनाने संवेदनाविहीन सत्ता के केंद्र को

अपनी जाएज़ आवाज़ 

चलते हैं किसान पैदल 180 किलोमीटर,

चलते-चलते घिस जाती हैं चप्पलें

डामर की सड़क बन जाती है हीटर। 


सत्ता के गलियारों तक आते-आते

घिसकर टूट जाती हैं चप्पलें

घर्षण से तलवों में फूट पड़ते हैं फफकते फफोले

सूज जाते हैं फटी बिवाइयों से भरे पावन पाँव,

रिसते हैं रह-रहकर छलछलाए छाले

मायानगरी की दहलीज़ पर

जहाँ उजड़ चुके हैं संवेदना के गाँव।


छह दिवस पथिक पैदल चले

पचास हज़ार ग़रीब किसान,

हौसला हो या दूसरों की परवाह

आंदोलन में शांति और अनुशासन के

छोड़ गए गहरे निशान।


हमने देखा उम्मीद मरी नहीं है

मुम्बईकर निकले घरों से

खाना-पानी और चप्पलें लेकर

लोग सिर्फ़ सेलिब्रिटीज़ को ही टीवी पर देखना चाहते हैं

तोड़ा भरम राष्ट्रीय मीडिया को नसीहत देकर।


सोई सरकार की नींद खुली

सभी माँगें स्वीकार कर लीं

पीड़ा के पाँवों पर मरहम लगाया

बेबस हो विशेष ट्रेन से

किसानों को घर भिजवाया।

© रवीन्द्र सिंह यादव


शुक्रवार, 9 मार्च 2018

मूर्ति

सोचता हूँ 
गढ़ दूँ 
मैं भी अपनी 
मिट्टी की मूर्ति, 
ताकि होती रहे 
मेरे अहंकारी-सुख की क्षतिपूर्ति। 

मिट्टी-पानी का अनुपात 
अभी तय नहीं हो पाया है, 
कभी मिट्टी कम 
तो कभी पर्याप्त पानी न मिल पाया है। 

जिस दिन मिट्टी-पानी का 
अनुपात तय हो जायेगा, 
एक सुगढ़ निष्प्राण 
शरीर उभर आयेगा। 

कोई क़द्र-दां  ख़रीदार भी होगा 
रखेगा सहेजकर, 
जहाँ पहुँचता न हो  दम्भी हथौड़ा 
मूर्तिभंजक नफ़रत का घूँट पीकर ..!   
#रवीन्द्र सिंह यादव 

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

होली की कथा


हमारी पौराणिक कथाऐं कहती हैं 

होली की कथा निष्ठुर ,

एक थे भक्त प्रह्लाद 

पिता  जिनका हिरण्यकशिपु  असुर। 


थी उनकी बुआ होलिका 

थी ममतामयी माता कयाधु ,

दैत्य कुल में जन्मे  

चिरंजीवी प्रह्लाद साधु। 


ईश्वर भक्ति से हो जाय विचलित प्रह्लाद 

पिता ने किये नाना प्रकार के उपाय, 

हो जाय जब विद्रोही बेटा 

बाप को पलभर न सुहाय। 


थे बाप-बेटे में  मतभेद भारी 

कहता बाप स्वयं को भगवान् , 

रहे झेलते यातनाऐं प्रह्लाद सदाचारी   

अनाचार को नहीं की मान्यता प्रदान। 

  

रार ज़्यादा ठनी जब

ख़्याल अपना लिया भयंकर हिरण्यकशिपु ने,

बुलाया बहन होलिका को 

प्रह्लाद को मारने। 



ब्रह्मा जी ने दिया  था  

होलिका को  वरदान, 

आग तुम्हें न जला सकेगी 

जब करोगी कार्य महान।  


लेकर बैठ गयी ज़बरन  प्रह्लाद को  चिता  पर 

छीनकर माँ से उसके दुलारे को ,

माँ चीख़ती रही बे-बस 

खोला होलिका ने दुष्टता के पिटारे को। 


नाम लेते रहे प्रह्लाद प्रभु का  

भस्म हो गयी होलिका,

बचा  न सका वरदान भी 

होता नहीं यत्न कोई प्रमाद की भूल का। 


सकुशल निकले भक्त प्रह्लाद  

प्रचंड चिताग्नि से 

आओ होली मनाऐं भर-भर उल्लास 

विमुक्त हों चिंताग्नि से। 


आओ जला दें आज अहंकार अपने 

खोल दें  उमंगों को जीभर मचलने।  

# रवीन्द्र सिंह यादव