साहित्य समाज का आईना है। भाव, विचार, दृष्टिकोण और अनुभूति का आतंरिक स्पर्श लोकदृष्टि के सर्जक हैं। यह सर्जना मानव मन को प्रभावित करती है और हमें संवेदना के शिखर की ओर ले जाती है। ज़माने की रफ़्तार के साथ ताल-सुर मिलाने का एक प्रयास आज (28-10-2016) अपनी यात्रा आरम्भ करता है...Copyright © रवीन्द्र सिंह यादव All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
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शनिवार, 13 अप्रैल 2019
गुरुवार, 4 अप्रैल 2019
नक़्शा
उस दिन बिटिया नाराज़ हुई थी
तब चौथी कक्षा में पढ़ती थी
भूगोल की परीक्षा में
नक़्शा बनाने के भी नंबर थे
नक़्शे बनाते-बनाते
उसे ग़ुस्सा आया
मेरे पास आयी
हाथ में थे कई काग़ज़
जिन पर बने थे कई नक़्शे
लेकिन नहीं थे बनाने जैसे
बालसुलभ तमतमाहट के साथ
पूछा मुझसे-
ये नक़्शे टेढ़े-मेढ़े क्यों होते हैं ?
बड़े होकर समझना
नक़्शों का बदलना
नक़्शों का मिटना
नक़्शों में समायी भावना
नक़्शों में निहित संभावना
तिरोहित होती है भाईचारे की भावना
क़ुदरत ने दिया था
बस एक ही नक़्शा भूमि-जल से चहकता
घुसेड़ दी है हमने नक़्शे में
विस्तारवादी / संकीर्ण मानसिकता
राजनीति रणनीति और सुरक्षा
नक़्शे की जड़ में छिपी है महत्त्वाकांक्षा
नक़्शों में सिमटी है आज दुनिया
सुनते-सुनते गंभीर हुई मुनिया।
© रवीन्द्र सिंह यादव
तब चौथी कक्षा में पढ़ती थी
भूगोल की परीक्षा में
नक़्शा बनाने के भी नंबर थे
नक़्शे बनाते-बनाते
उसे ग़ुस्सा आया
मेरे पास आयी
हाथ में थे कई काग़ज़
जिन पर बने थे कई नक़्शे
लेकिन नहीं थे बनाने जैसे
बालसुलभ तमतमाहट के साथ
पूछा मुझसे-
ये नक़्शे टेढ़े-मेढ़े क्यों होते हैं ?
बड़े होकर समझना
नक़्शों का बदलना
नक़्शों का मिटना
नक़्शों में समायी भावना
नक़्शों में निहित संभावना
तिरोहित होती है भाईचारे की भावना
क़ुदरत ने दिया था
बस एक ही नक़्शा भूमि-जल से चहकता
घुसेड़ दी है हमने नक़्शे में
विस्तारवादी / संकीर्ण मानसिकता
राजनीति रणनीति और सुरक्षा
नक़्शे की जड़ में छिपी है महत्त्वाकांक्षा
नक़्शों में सिमटी है आज दुनिया
सुनते-सुनते गंभीर हुई मुनिया।
© रवीन्द्र सिंह यादव