छतनार वृक्ष की छाया में
दो पल सुस्ताने का मन है
वक़्त गुज़रने की चिंता में
अनवरत चलने का वज़्न है
कभी बहती कभी थमती है बड़ी मनमौजन है पुरवाई
किसी को कब समझ आई अरे यह तो बड़ी है हरजाई
बहती नदिया थम-सी गई लगती है
श्वेत बादल सृजन श्रृंगार के लिए ठिठके हैं
जल-दर्पण में मधुर मुस्कान का जादू नयनाभिराम
पुरवाई फिर बही सरसराती
अनमने शजर की उनींदी शाख़ का
एक सूखा पत्ता
गिरा नदिया के पानी में
बेचारा अभागा अनाथ हो गया
पलभर में दृश्य बिखरा हुआ पाया
जल ने ख़ुद को हलचलभरा पाया
बीच भँवर का क़िस्सा कहे कौन
किनारा-किनारा कभी मिल न पाया
लहरों का अस्तित्त्व साहिल पर
हो आश्रयविहीन विलीन हो गया
सदियों से प्यासा है तट नदिया का
पर्णविहीन जवासा
कलरव नाद में लवलीन हो गया
शुभ्र वर्ण बादल का श्रृंगार हो पाया न हो पाया!
मैंने ख़ुद को सफ़र में चलते हुए पाया।
© रवीन्द्र सिंह यादव