1. पथिक ने एक गुठली ठुकराई,
लू के मौसम में बहती पुरवाई।
गुठली उछली खेत की मेंड़ पर आई,
ठोकर खाकर आपे से बाहर आई,
रे पथिक!
जड़ नहीं चेतन हूँ- कहकर चिल्लाई,
सृजन का बीज हूँ
मुझमें सोई समर्थ अमराई!
पथिक ने एक गुठली ठुकराई।
2.
सुनो, ख़ुदग़रज़ आदमी!
क्या भरी है मुझमें ख़ामी?
फेंकी जाती हूँ
अक्सर घोर उपेक्षा से,
ढूँढ़ा करता है
कोई मीत मुझे सदेच्छा से,
कभी जा गिरी पथरीली सतह पर,
दब जाती हूँ प्लास्टिक की तह पर,
मिलें अनुकूल मौसम में
हवा मिट्टी पानी धूप,
अंकुरित हो निखरे
किसलय संग मेरा नन्हा रूप,
परवश हूँ
न जानूँ मानव-सी चतुराई!
पथिक ने एक गुठली ठुकराई।
3.
कहा पथिक ने
आत्मग्लानिवश होकर,
क्षमा करो!
अनजाने में मारी है ठोकर,
सृष्टि की महिमा में
उसका उर द्रवित हुआ,
अंतरमन को
गुठली की गहन वेदना ने छुआ,
कहो! कहानी
शेष रही जो ए गुठली!
मेरे भीतर अब तो
उत्कट उत्कंठा अकुलाई!
पथिक ने एक गुठली ठुकराई।
4.
सुनो! बाग़ में खड़ा है
एक बूढ़ा मीठा आम,
मेरा जनक होने पर
है उसको अभिमान,
अमराई में गीत सुने हैं
कोमल कोकिला के,
छाया में बैठे देखे
पीर से पीड़ित पथिक महान,
बसंत में मंजरियों पर छाया यौवन,
अमियाँ झुलाने बहती पुरवाई पवन,
खेल-खेल में बढ़ते-बढ़ते,
तेज़ घाम में बढ़ते-बढ़ते,
कच्ची अमियाँ रसीला आम हो गई,
मैं भी अंदर ही अंदर कठोर हो गई,
आम-कैरी मंडी हाट-बाज़ार पहुँचकर
पेटों में पच गए,
कदाचित दो आम
आदमी की लालची दृष्टि से
वृक्ष पर बच गए,
एक दिन आए
कुछ बच्चे नादान बाग़ में,
झुलस रहे थे
जून की झुलसाती आग में,
मेरे साथी पर पड़ी थी
उत्सुक दृष्टि उनकी,
कदाचित थी
आम तोड़ने की योजना उनकी,
पत्थर-डंडे फेंक-फेंककर
साथी उनके हाथ लगा,
मेरा मन विचलित होने से
अब रुक न सका,
टुकड़े-टुकड़े मीठा आम खाया,
कोई ख़याल उनके मन आया,
गुठली को तोड़ा पत्थर से,
अंदर थी मिगी बड़ी सलोनी-सी,
थी सूरत अब उसकी रोनी-सी,
एक बच्चे ने दबाई मिगी
तर्जनी और अँगूठे से,
सब मिलकर बोले-
उछाल! उछाल!!
तेरी शादी आएगी उसी दिशा से,
उछलकर जाएगी गुठली
जिस दिशा में फिसलकर बंधन से,
जाते-जाते
वे मिगी के टुकड़े-टुकड़े कर गए,
कुछ राह में फेंके उन्होंने
कुछ चटपट चट कर गए,
खेल-खेल में वे नादान
एक वृक्ष की संभावना ख़त्म कर गए,
कहते-कहते आत्मकथा
रुआसी आवाज़ हुई भर्राई!
पथिक ने एक गुठली ठुकराई।
5.
पथिक बोला-
तुम्हारे साथ क्या घटित हुआ?
तब गुठली की बातों से
रहस्य उद्घाटित हुआ।
होता क्या रे!
मैं भी एक दिन
एक चरवाहे की नज़र चढ़ गई,
बहुत दिनों छिपी रही पत्तों में
उस दिन उघड़ गई,
गिरा न पाए थे
आँधी तोते और गिलहरियाँ,
मेरा पालक
रोज़-रोज़ लेता रहा बलैयाँ,
आम हुआ था
पककर पूरा पीला रसीला,
चरवाहा ही जाने
ज़बान के चटख़ारे की लीला,
नियति-चक्र की समझो
जानी-अनजानी भरपाई!
पथिक ने एक गुठली ठुकराई।
6.
हे गुठली! मैं शर्मिंदा हूँ!
सृष्टि की गोद में ज़िंदा हूँ!
ऐसी क्रूर अशिष्टता
अब न होगी मुझसे,
क्या तुम
दोस्ती कर सकोगी मुझसे?
सुनकर प्रश्न पथिक का
गुठली ने ली अंगड़ाई!
पथिक ने एक गुठली ठुकराई।
7.
सुनो पथिक! शेष अभी है कहानी,
मेरे जनक की कथा तुम्हें है सुनानी।
कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती है,
मैं जिसकी संतान हूँ
उसकी कथा
मुझमें स्वाभिमान का बीज बोती है,
वह तब गुठली होने पर
इतराई, इठलाई थी,
जब अमीर घर से
मीठे आम की गुठली
ग़रीब किसान के हाथ आई थी,
गमले में हुआ सहज अंकुरण
बाग़ में हुई कुशल हाथों से रोपाई थी,
पशुओं से बचा-बचाकर बड़ा किया
पेड़ बनने तक खाद-पानी दिया
क्या ऐसा आदमी क़ुदरत ने
अब पैदा करना बंद कर दिया...?
गुठली का गंभीर मासूम प्रश्न सुन
पथिक तो हुआ निरुत्तर,
सोचा, बनना होगा जग में
इंसान को और भी बेहतर!
गुठली की बात सुनो रे!
नहीं तो इत कुआँ उत खाई!
पथिक ने एक गुठली ठुकराई।
© रवीन्द्र सिंह यादव