बसंत को विदा हुए
कुछ अरसा ही बीता है
कुछ पत्ते झड़ गए
कुछ को नए रंगों में
खिलने का सुभीता है
बकाइन, पीपल, सेमल को देखो
पुराने पत्तों के झरने के उपरांत
कैसे सुनहले-हरे पल्लवों से
लजाते हुए ख़ुद को ढक रहे हैं
सुदूर अमराइयों में
कोकिला की कूक है
पकती फ़सल देख
किसान को एमएसपी की हूक है
ख़ून-पसीने की कमाई
कितनी अनिश्चित है
किसान की समृद्धि
किसी और के हाथ में सुरक्षित है
आसमान में उमड़ते बादल
दूर-दूर तक उठते धूल के ग़ुबार
बेमौसमी बेचैनी के विस्तार
नितांत ठूँठ को भी नहीं सुहाते
विपरीतताओं से हम कब अघाते
अन्न के दाने
खेत से घर
घर से बाज़ार-दर-बाज़ार
लिए डोलता है कृषक
इस सफ़र में
घात लगाए बैठे लुटेरों से
दिन-रात जूझता है कृषक
पतझड़ के बाद
फिर उगाएगा नए पौधे
रोपेगा उम्मीद के नए पौधे
यह नियति-चक्र में
शोषण-चक्रव्यूह की
साँठगाँठ गहरी है
न राहत की सुबह
न चैन की दुपहरी है।
© रवीन्द्र सिंह यादव