युगों-युगों में
समय के साथ
समाज सभ्य हुआ
सुसंस्कृत होने की प्रवृत्ति का
सतत क्षय हुआ
आज अवांछित अभिलाषाओं का
अनमना आलोक
अभिशप्त यंत्रणा के
अंधड़ में ढल गया है
भव्यता,भौतिकता के
विस्तार का बीज
लालच के गर्भ में पल रहा है
विवेकहीन मस्तिष्क
भावविहीन ह्रदय
क्षत-विक्षत भावनाओं का
अंबार लादे
बैल-सा जुते रहने की
मंत्रणा कर
सो गए हैं
आस्तीन का सॉंप डसेगा
तंद्रा टूटेगी
तब तक
समय रेत-सा फिसलकर
भावी पीढ़ियों की
आँखों की किरकिरी बन चुका होगा!
© रवीन्द्र सिंह यादव