चित्र साभार: सुकांत कुमार
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एक हरी डाल पर
फूल और काँटा
करते रहे बसर
फूल खिला, इतराया
अपने अनुपम सौंदर्य पर
काँटा भी नुकीला हुआ,
सख़्त हुआ अभिमान से बेअसर
उन्मादी हवा बही
साएँ-साएँ सरसर-सरसर
काँटा हुआ पंखुड़ी के
आरपार एक दोपहर
धूप-बारिश की मार
हुई धुआँधार गाँव-शहर
तितली-भँवरे,कीट-पतंगे,
रसिक कविवर
गाते गुणगान फूल का
मन भर कर
काँटा तो चुभन की
पीड़ा देता चुभकर
जिस फूल की रक्षा में
काँटा झेलता रहा आलोचना जीभर
वही एक दिन
लगा किसी के हाथ
और मुरझाया सेज पर सजकर
अब काँटा जी रहा
एकाकी जीवन मन मार कर
नियति-चक्र में
फूल-काँटे साथ रहते
विपरीत स्वभाव होकर
फूल-काँटे पनपते रहेंगे
मौसमों की मार सहकर।
©रवीन्द्र सिंह यादव