धीरे - धीरे ज़ख़्म सारे
अब भरने को आ गए ,
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
ज़िन्दगी को जब ज़रूरत
उजियारे दिन की आ पड़ी,
लपलपायीं बिजलियाँ
गरजकर काले बादल छा गए।
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
बाँसुरी की धुन पे थिरका
बृज के साथ सारा ज़माना,
श्याम जब राधा से मिलने
यमुना तट पर आ गए।
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
आज फिर आँगन में मेरे
नन्हीं कलियाँ खिल रहीं,
गीत फिर इनको सुनाओ
जो दादी नाना गा गए।
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
क्या मनाएं जश्न हम
ज़िन्दगी की जीत का,
बाँटने को थीं जो चीज़ें
हम उन्हीं को खा गए।
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
इस रचना को सस्वर सुनने के लिए लिंक - https://youtu.be/QdAzRuiZa8
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (0५ -१०-२०१९ ) को "क़ुदरत की कहानी "(चर्चा अंक- ३४७४) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत अच्छी रचना सुंदर भावयुक्त आदरणीय।
जवाब देंहटाएंसादर।
हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
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