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बुधवार, 29 नवंबर 2017

एक नाज़ुक-सा फूल गुलाब का ...




हूँ  मैं  एक  नाज़ुक-सा  फूल, 
घेरे रहते हैं मुझे नुकीले शूल। 

कोई तोड़ता पुष्पासन से, 
कोई तोड़ता बस पँखुड़ी; 
पुष्पवृंत से तोड़ता कोई, 
कोई मारता बेरहम छड़ी।   

खोंसता गेसुओं में महबूब के कोई तोड़कर, 
बिछा देता है कोई कुपात्र के क़दमों पर; 
अर्पित  करता  है  कोई  ईष्ट  के  सर, 
बिलखता हूँ मैं भी किसी के मरने पर। 

मिट जाता हूँ ख़ुशी-ख़ुशी, 
बेहिचक औरों की ख़ुशी के लिये;  
बनता है इत्र, गुलकंद, गुलाब-जल,
 ज़माने की ख़ुशी के लिये।  

मन-मस्तिष्क,नज़र और दिल, 
सब पर मेरा ही राज  है; 
मकरंद मेरा मधुमख्खियों को, 
लगता मदिर मधुर साज़ है; 

ले जाती हैं चूसकर वे बूँद-बूँद,
क़रीने से एक छत्ता बनाने; 
मधु  की मधुरिम मिठास, 
मतलबी संसार को चखाने।   

छत्ते का मधुमय मोम,
  लिपस्टिक में मिलकर; 
खेलता है अठखेलियाँ,
  गोरी के गुलाबी लबों पर।  

भीनी ख़ुशबू में तर-ब-तर  होकर, 
मीठे बोल फ़ज़ाओं में अदब से उतरते हैं; 
मोहक मधुर सदाएँ सुन आबोहवा की
लगता है बस्ती को ज्यों होंठों से फूल झरते हैं।  


आशिक़-महबूबा की गुफ़्तुगू सुनता हूँ, 
गुलशन में इश्क़ के सौदे रोज़ बुनता  हूँ; 
शर्म-ओ-हया, यक़ीन,वफ़ा, इक़रार सब ज़िक्र हुए, 
रेशमी मरमरी ख़्वाबों के चर्चे सरेआम बेफ़िक्र हुए।  

अकेला आता है कोई दिलजला, 
तब  महसूसता हूँ धधकते शोलों की तीव्र तपन;
दिल की बाज़ी हारकर, 
सुना जाता है अपने सीने की चुभन-जलन।   

तितलियाँ,ततैया,भँवरे,मधुमख्खियाँ,कीट-पतंगे,
 आते रहते  मधुवन में  मुझसे मिलने 
होंगे इनके अपने-अपने माक़ूल मक़सद,
  संपन्न होता है परागण पीढ़ियां संसार में बढ़ने ; 

मृत्यु के भावी भय से परे,
 औरों के लिये मुस्कराते हैं फूल; 
मुरझाने की आसन्न नियति से,
 कदापि नहीं घबराते हैं फूल।  

ज़माना माने तो माने उन्हें बेवफ़ा, 
मैं कैसे मानूँ  उन्हें अलग-थलग; 
ब्रेक-अप के बाद तन्हा आए, 
मजबूरियाँ  बताने अलग-अलग। 

वफ़ा का चराग़ रहेगा रौशन, 
देखी है ललक मैंने उन आँखों में;  
जज़्बात की पाकीज़गी,
बिछा देगी फूल ही फूल राहों में।   

 © रवीन्द्र सिंह यादव 




शब्दार्थ / WORD MEANINGS 


नाज़ुक = अत्यंत कोमल,विनम्र,विनीत / DELICATE
शूल = काँटा ,कंटक / THORN 


पुष्पासन = फूल का निचला भाग जहाँ सभी भाग इससे जुड़े होते हैं इस  पर टिककर फूल खिलता /  RECEPTACLE 


पुष्पवृंत = डंठल जिससे फूल और डाली जुड़े होते हैं / STALK OF A  FLOWER 


पंखुड़ी = पाँख ,दल / PEPAL 


छड़ी =  STICK 


इत्र = ख़ुशबूदार तरल / PERFUME, ESSENCE , SCENT 


गुलकंद = सूखे गुलाब की पंखुड़ियों को पानी में शक्कर के साथ गर्म करके बना  मिठासभरा गाढ़ा उत्पाद  / CONSERVE OF ROSE PETALS


मकरंद = पराग, पुष्परस  / NECTOR 

माक़ूल= उचित, उपयुक्त / REASONABLE, APPROPRIATE 


मोम= मधुमख्खियों  के छत्ते का सम्पूर्ण स्पंजनुमा भाग जोकि उत्कृष्ट गुणवत्ता की लिप स्टिक बनाने में उपयोगी है / NATURAL WAX 


परागण (POLLINATION ) = फूलों में प्रजनन की प्रक्रिया जिसमें STAMEN (POLLEN GRAINS ) को एक फूल से दूसरे फूल या उसी फूल में STIGMA तक  पहुँचाने में कीट-पतंगों ,तितलियों आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता है।  

लिपस्टिक (Lipstick ) = एक सौंदर्य प्रसाधन उत्पाद जोकि अधरों की सुंदरता में नयनाभिराम आकर्षण उत्पन्न कर सके।  इसमें त्वचा सम्बंधी नमी बरक़रार रखने वाले तत्व , तेल , मोम (Wax) और रंगों का इस्तेमाल किया जाता है।  वास्तव में इस उत्पाद में सभी तत्व नैसर्गिक (Natural ) होने चाहिए ( यहां उल्लेखनीय है शहद के छत्ते से प्राप्त मोम / WAX  का लिपस्टिक बनाने में  प्रयोग होता है  ) किन्तु आधुनिकता की अंधी दौड़ में हमें अब इतना भी भान नहीं है कि बाज़ार ने इसमें कौन-कौन से हानिकारक रसायन मिला दिए हैं जिसका खामियाज़ा सीधा ग़रीब वर्ग उठाता है क्योंकि प्राकृतिक तत्वों के साथ तैयार की हुई लिपस्टिक ख़रीदने की उसकी हैसियत नहीं है लेकिन इस शौक को भी पूरा करना है तो बाज़ार ने सस्ता से सस्ता हानिकारक विकल्प उपलब्ध करा दिया है।  

हमारी मानसिकता भी अरबों के व्यवसाय का आधार बन जाती है। 

मेक अप ( Make up ) अर्थात क्षतिपूर्ति।  जो कमी है उसे पूरा किया जाना।  फ़ैशन का क्रम ऊपर से नीचे की ओर बढ़ता है।  पहले इसे आभिजात्य वर्ग अपनाता है फिर समाज में नीचे की ओर इसका अंधानुकरण फैलता चला जाता है। 


लब (Lip ) = होंठ , ओष्ठ , अधर 

प्राकृतिक रूप से स्वस्थ  होंठों का रंग गुलाबी ही होता है ख़ून की कमी के कारण या अन्य कारणों से इनका रंग काला या नीला भी देखा जाता है।  आजकल फ़ैशन का ऐसा रंग चढ़ा है कि बाज़ार ने मानसिकता पर कब्ज़ा कर लिया है और लिपस्टिक  काले , हरे और न जाने कितने रंगों में उपलब्ध होकर अधरों पर सज रही है; परिधान के रंगों से मैच करती हुई। 

श्रृंगार रस के कवियों ने अधरों का वर्णन करने में कोई कोताही नहीं की है। गीतकार राजेंद्र कृष्ण जी ने   फ़िल्म शहनाई के  एक गीत   "न झटको ज़ुल्फ़ से पानी" .......  में पढ़िए कितनी कलात्मकता प्रदर्शित की है।  आगे ख़ूबसूरत प्रतीकों का इस्तेमाल करते हुए कहा है -
"ये नाज़ुक लब हैं या आपस में दो लिपटी हुई कलियाँ.....
   ज़रा  इनको   अलग  कर  दो  तरन्नुम  फूट  जाएंगे।" 

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीय
    सादर

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-11-2019) को    "मीठा करेला"  (चर्चा अंक 3532)     पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में बुधवार 13 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. बहुत ही बेहतरीन रचना

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आपकी टिप्पणी का स्वागत है.