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बुधवार, 17 जनवरी 2018

चाहा था एक दिन ...

माँगी थीं 
जब बिजलियाँ,  
उमड़कर 
काली घटाएँ आ गयीं। 

देखे क्या जन्नत के 
दिलकश ख़्वाब,
सज-धजकर  
गर्दिश की बारातें आ गयीं।  

चाही हर शय 
हसीं जब  भी, 
बेरहम हो 
आड़े 
वक़्त की चालें आ गयीं। 

इंतज़ार था 
कि आँखों से बात हो, 
तिनकों के साथ 
ज़ालिम हवाऐं आ गयीं। 

दर्द-ए-जिगर से 
राहत माँगी थी एक दिन 
नश्तरों की ज़ख़्म पर 
बौछारें आ गयीं।   

चाहा था एक दिन 
पीना ठंडा पानी ,
लेकर वो तश्तरी-ए-अश्क़ में 
सुनामी लहरें आ गयीं।  

# रवीन्द्र सिंह यादव 

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-10-2019) को     "भइया-दोयज पर्व"  (चर्चा अंक- 3503)   पर भी होगी। 
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    -- दीपावली के पंच पर्वों की शृंखला में गोवर्धनपूजा की
    हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।  
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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