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रविवार, 18 फ़रवरी 2018

शायद देखा नहीं उसने


चराग़-ए-आरज़ू  

जलाये रखना, 

उम्मीद आँधियों  में  

बनाये रखना। 



अब  क्या  डरना 

हालात की तल्ख़ियों से,

आ गया हमको 

बुलंदियों का स्वाद चखना।  



ठोकरें दे जाती  हैं 

जीने का शुऊर ,

कोई  देख पाता है  

 कलियों का चटख़ना। 



काट लेता है कोई शाख़ 

घर अपना बनाने को, 

शायद देखा नहीं उसने 

चिड़िया का बिलखना। 

# रवीन्द्र सिंह यादव 

9 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (31-01-2020) को "ऐ जिंदगी तेरी हर बात से डर लगता है"(चर्चा अंक - 3597) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है 
    ….
    अनीता लागुरी 'अनु '

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  2. आदरणीय सर आपकी रचनाएँ सदा ही एक महत्वपूर्ण संदेश देती है जो मानव कल्याण के लिए उपयोगी है।
    बेहद उम्दा पंक्तियाँ 👌
    सादर प्रणाम 🙏
    सुप्रभात।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर रचना

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह!रविन्द्र जी ,क्या बात कही है आपने !लाजवाब!

    जवाब देंहटाएं
  5. हृदय स्पर्शी सृजन छोटी रचना में अनंत गहराई।
    सुंदर।

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (30-12-2020) को "बीत रहा है साल पुराना, कल की बातें छोड़ो"  (चर्चा अंक-3931)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  7. शुभ हो नया साल । सुन्दर रचना।

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  8. ये बुलंद‍ियां ही हैं जो हौसलों को परवाज देती हैं रवींद्र जी...वाह अब क्या डरना

    हालात की तल्ख़ियों से,

    आ गया हमको

    बुलंदियों का स्वाद चखना..क्या खूब ल‍िखा

    जवाब देंहटाएं
  9. अब क्या डरना
    हालात की तल्ख़ियों से,
    आ गया हमको
    बुलंदियों का स्वाद चखना।

    हौसले को बयान करती बहुत सुंदर रचना...

    जवाब देंहटाएं

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