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शनिवार, 28 अप्रैल 2018

न्याय-तंत्र ही माँगे न्याय...

लोकतंत्र का एक खम्भा 
कहलाती न्याय-व्यवस्था, 
न्याय-तंत्र ही माँगे न्याय
    आयी कैसी जटिल अवस्था।    
इंसाफ़ के लिए 
वर्षों से 
लाचार 
जनता तड़पती देखो,  
वर्चस्व के लिए 
अब आपस में  
न्याय-व्यवस्था 
झगड़ती देखो।
सत्ता और 
न्याय-व्यवस्था में 
दोस्ती और 
साँठगाँठ का अनुमान,
गुज़रेगा यह 
दुश्वारियों का दौर भी  
फ़ैसले करेंगे दूर 
फ़ुतूर और गुमान।

#रवीन्द्र सिंह यादव 


सोमवार, 23 अप्रैल 2018

ज़िंदगी का सफ़र


रस्म-ए-वफ़ा निभाने की 
कोशिशें  करते रहे ,
हर क़दम पे पुर-असर 
नुमाइशें करते रहे।

सुलगती याद 
फैली हुई है चार सू,
ग़म-ज़दा होने की और 
फ़रमाइशें करते रहे।

उन प्यारी निगाहों में 
जला दिये ग़म के दिये,
अपने लिये इश्क़ में 
हज़ार बंदिशें करते रहे।

आरज़ू के साथ-साथ


मायूसियाँ भी चलीं,
मोहब्बत की राह में 
गुंजाइशें करते रहे।

वो आइना जिसमें 
 छाये थे जल्वे ही जल्वे,
गवारा उसकी सब
 रंजिशें करते रहे।

वक़्त-ए-गर्दिश की 
लकीर से अलाहिदा,
ज़ख़्म-ए-वफ़ा की 
पैमाइशें करते रहे।

बेहया बादल न आये  
एक पुराना ज़ख़्म धोने,
वक़्त-बे-वक़्त आँसू  
बारिशें करते रहे।  

हवाऐं आती रहीं 
मोहब्बत के जज़ीरे से,
हम दफ़्न अपनी 
 ख़्वाहिशें करते रहे।   

#रवीन्द्र सिंह यादव

शब्दार्थ / WORD MEANINGS 


रस्म-ए-वफ़ा = वफ़ादारी का दस्तूर / FAITHFULNESS'S RITUAL  

नुमाइशें (नुमाइश) = प्रदर्शनी / SHOW , EXHIBITIONS  

पुर-असर=पूरी तरह असरदार / FULLY  EFFECTIVE 


सू= ओर ,से , तरफ़ ,दिशा  / DIRECTION ,SIDE  

ग़म-ज़दा = उदास, अवसादग्रस्त / MELANCHOLIC 


फ़रमाइशें (फ़रमाइश) = अनुरोध / REQUEST  

बंदिशें (बंदिश) = रोक,बंधन,सीमा-बंधन,संयम / RESTRICTION  


मायूसियाँ (मायूसी) = निराशा / DISAPPOINTMENT


आरज़ू = चाहत, इच्छा, मनोकामना / DESIRE ,WISH  


गुंजाइशें (गुंजाइश ) = क्षमता / CAPACITY 


जल्वे (जल्वा ) = रौशनी / LUSTRE ,SOFT GLOW , SHINE  


गवारा = सहने योग्य / TOLERABLE, BEARABLE


रंजिशें (रंजिश) = बैर, विरोध, शत्रुता / HOSTILITY 


 वक़्त-ए-गर्दिश = बुरा समय, कठिन दौर / Movement of time  

लकीर = रेखा ,पंक्ति / LINE, STREAK  


अलाहिदा = अलग, पृथक / DIFFERENT, SEPARATE, APART   


ज़ख़्म-ए-वफ़ा = वफ़ादारी का घाव / SORE / GASH OF                                                    CONSTANCY  

पैमाइशें (पैमाइश) = माप, नापतौल / MEASUREMENT 

बे-वक़्त  = समय से पूर्व, तय समय से पहले / UNTIMELY 

वक़्त-बे-वक़्त  = कभी भी , किसी भी समय, किसी भी मौक़े पर / ANY                                TIME  


जज़ीरे (जज़ीरा) = द्वीप / ISLANDS 

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

तस्वीर

वर्षों से दीवार पर टंगी 

तस्वीर से 

धूल साफ़ की 

आँखों में 

करुणा की कसक 

हया की नज़ाकत 

मुस्कान के पीछे 

छिपा  दर्द 

ये आज भी फीके कहाँ  

चीज़ों की उम्र होती है 

प्रेम की कहाँ 

लेकिन आँखों ने 

इशारों में कहा है 

अब प्रेम का दायरा 

सिकुड़ता जा रहा है। 

#रवीन्द्र सिंह यादव 

बुधवार, 18 अप्रैल 2018

सुमन और सुगंध

सुगंध साथ सुमन के 

महकती 

ख़ुशी से रहती है, 

ये ज़ंजीर न बंधन के 

चहकती 

ख़ुशी से रहती है। 

फूल खिलते हैं 

हसीं रुख़ देने 

नज़ारों को,  

तितलियाँ 

आ जाती हैं 

बनाने ख़ुशनुमा 

बहारों को। 

कभी  ढलकता है 

कजरारी आँख से 

उदास  काजल, 

कहीं रुख़ से 

सरक जाता है 

भीगा आँचल। 

परिंदे भी आते हैं  

ख़ामोश चमन में 

पयाम-ए-अम्न लेकर, 

न लौटा कभी 

गुलिस्तान  से 

भारी मन लेकर।  

#रवीन्द्र सिंह यादव 

शब्दार्थ / WORD  MEANINGS 

सुगंध = महक, ख़ुशबू / FRAGRANCE 

सुमन = पुष्प , फूल / FLOWER 

ज़ंजीर= साँकल ,शृंखला / CHAIN 

,हसीं = सुन्दर ,ख़ूबसूरत / BEAUTIFUL 

कजरारी आँख = आँख जिसमें काजल लगा हो , काजलयुक्त आँख / EYE WITH KOHL 

रुख़ = चेहरा ,दृटिकोण , चेहरे पर नज़र आने वाला भाव, दिशा  /  FACE , APPEARANCE, DIRACTION  

चमन = बाग़/  FLOWER GARDEN  

पयाम-ए-अम्न= शान्ति का सन्देश / MESSAGE OF PEACE 

गुलिस्तान= बाग़ / FLOWER GARDEN 

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

मच्छर ने हवाई-यात्री को काटा !

समाचार आया है -
हवाई जहाज़ में 
मच्छर ने यात्री को काटा !
सनसनी-ख़ेज़ समाचार / ब्रेकिंग न्यूज़  
तब भी बनता 
जब हम पढ़ते- 
मच्छर को हवाई-यात्री ने काटा !!
मच्छर तुम कितने भाग्यवान हो 
सचमुच तुम बड़े बलवान हो 
साथ में भोले और नादान हो 
ख़तरों से अनजान हो 
लगता है तुम 
ग़रीबों का ख़ून पीते-पीते अघाये हो 
इसलिए उड़कर एयर-पोर्ट तक आये हो 
शायद  तुम्हें अपनी जान प्यारी नहीं 
भ्रम  है  तुम्हारा 
तुम्हें निबटाने की यहाँ कोई तैयारी नहीं 
मासूमों पर बर्बर अत्याचार 
गैंग रेप 
हत्या
भ्रष्टाचार
भूख से मौत
पुलिस-अत्याचार 
सरकारी भेदभाव  
बेकारी का फैलाव 
ज़हरीली हो रही दमघोंटू  हवा 
दहशत-नफ़रत घुली  आब-ओ-हवा 
अनिश्चित भविष्य से व्यथित युवा 
सरकारी अस्पतालों से  ग़ायब दवा 
क़र्ज़ से घबराकर मरते किसान 
अघोषित युद्ध की क़ीमत चुकाते जवान  
  लोकहितकारी ख़बर
दबा दी जाती है 
हवाई यात्री को 
मच्छर काटने की ख़बर 
सुर्ख़ियाँ बना दी जाती है। 
हम यह ख़बर 
बड़े चाव से पढ़ते हैं 
ख़बर के बग़ल में छपे विज्ञापन 
हमारी जेब पर बहुत भारी पड़ते हैं। 
#रवीन्द्र सिंह यादव 

शनिवार, 7 अप्रैल 2018

पुस्तक समीक्षा ..."चीख़ती आवाज़ें"

                                         

शीर्षक "चीख़ती आवाज़ें"
विधा- कविता (काव्य संग्रह )
कवि - ध्रुव सिंह "एकलव्य"
प्रकाशक- प्राची डिजिटल पब्लिकेशन, मेरठ  

ISBN-10: 9387856763

ISBN-13: 978-9387856769

ASIN: B07BHSKXSR

मूल्य - 110 रुपये 
पृष्ठ संख्या - 102 
बाइंडिंग - पेपरबैक 
भाषा - हिन्दी 



पुस्तक प्राप्ति हेतु  लिंक्स : 

  amazon.in  
                                    


                                  
   Prachi Digital Publication 
                                   
 Snapdeal




             सामाजिक चेतना के मुखर कवि ध्रुव सिंह "एकलव्य" जी का प्रथम काव्य संग्रह "चीख़ती आवाज़ें" हाथ में आया। सर्वप्रथम ध्रुव जी को प्रथम काव्य संग्रह के प्रकाशन पर बधाई। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक है। मुखपृष्ठ पर चीख़ती आवाज़ों का रेखांकन अर्थपूर्ण है। पुस्तक का शब्द-शिल्प क़ाबिल-ए-तारीफ़ है जो कवि का यथार्थवादी एवं प्रत्यक्षवादी  दृष्टिकोण उभारने में सक्षम रहा है।  

         पुस्तक में आरम्भ से अंत तक बिषयक गंभीरता का प्राधान्य है। ध्रुव जी एक कवि होने के साथ-साथ कुशल व्यंगकार, कहानीकार,चित्रकार एवं नाट्य कलाकार भी हैं। जब एक कलाकार में विद्रोह का स्वर मुखरित होता है तो सम्वेदना की मख़मली ज़मीन पर सुकोमल एहसास जीवन को रसमय बनाते हैं और पात्र जीवंत हो उठते हैं। 
        कविता "अनुत्तरित" में  असहाय,लावारिस जीवन की विवशताओं और लाचारी की झलक कवि के शब्दों में - 
"मार दिए थे उसने 
दो झापड़,
लावारिस हूँ
कहके। 
एक चीख़ती आवाज़ 
चीरने लगी थी 
प्लेटफार्म पर पसरे 
सन्नाटे को।"  

        "ख़त्म होंगी मंज़िलें" कविता में  आज के सुलगते हुए सवाल की आँच हमें भी झुलसाती है - 

"मंज़िलों पर मंज़िलें
मंज़िलों के वास्ते
फुटपाथ पर पड़े हम
ज्ञात नहीं
कब आयेंगी ?
वे मंज़िलें
चप्पल उतारकर ,धुले हुए
क़दमों को आराम दूँगा !"  
    किसान को अपनी लहलहाती फ़सल से अगाध प्रेम होता है जिसे वह अपनी औलाद की भांति स्नेह करता है। एक रचना फ़सल का मानवीकरण करती हुई -
"मौसमों के प्यार ने बड़ी ज़्यादती की
लिटा दिया
मेरे अधपके बच्चों को 
खेतों में मेरे"

    रिश्तों में गुथे हुए समाज की बिडम्बनाएं कवि को विचलित करती हैं और दर्द उभर आता है लेखनी में -
"बिना खाए सो गई
फिर आज
'मुनिया' नन्हीं हमारी
चलो ! मेरी क़िस्मत ही फूटी"

     बेघर और जीवन की मूलभूत सुबिधाओं से वंचित व्यक्ति के भीतर भी स्वाभिमान पनपता है - 
"ख़्याल रखना !
उस नीम का
नवाब साहब के आँगन में
लगा है।"

      नारी स्वतंत्रता,शिक्षा और सशक्तिकरण भले ही आज के सर्वाधिक चर्चित जुमले हों किन्तु ग़ौर कीजिये कवि की नज़र कहाँ ठहर गयी है -
"वो घर था !
एक खूँटी से बंधी थी
ड्योढ़ी की सीमा
खींच दी कहकर
मेरी लक्ष्मण रेखा
यौवन आने तक।" 

       ग़ुर्बत में जीने वालों की ज़िन्दगी खटमल को भी सुबिधा और सहूलियत वाली सिद्ध होती है। खटमल को अपना शिकार तलाशने के लिए ज़्यादा श्रम नहीं करना पड़ता।   कविता "खटमल का दर्द" सामाजिक असमानता के विकराल स्वरुप पर धारदार कटाक्ष करती है -  
"खटमल को शायद 
आदमी पसंद हैं 
और  वो भी 
फ़ुटपाथ के !"

      स्त्री जीवन की विवशताओं को कवि का संवेदनशील ह्रदय कुछ इस प्रकार बयां करता है-
इच्छायें उड़ानों की ऊँची 
बुनती हुई 
सूख चले नेत्रों में 
कंपित होठों पर 
गुम हुई 
आवाज़ भी है 
वो प्यासी आज भी है। 
    ग्रामीण जीवन की झांकी प्रस्तुत करती एक रचना में वात्सल्य और ममता से भरा एक माँ का आँचल कितना विशाल होता है।  कवि के शब्दों में -
प्रसन्न थे हम दिन-प्रतिदिन
खो रही थी वो
हमें प्रसन्न रखने के
जुगाड़ में। 
       प्रस्तुत संग्रह की रचनाओं में कवि ने आँचलिकता को उभरने का भरपूर मौक़ा दिया है। ग्रामीण जीवन के आरोह-अवरोह कवि ने बड़ी शिद्दत के साथ उभारे हैं। विवशता और लाचारी के गंवई पात्र "बुधिया" के माध्यम से कवि ने सामाजिक मूल्यों के ह्रास पर प्रभावशाली हस्तक्षेप किया है- 
मेहनत बिन 
ले जायेंगे हमको 
हाथों से हमारे 
पालनहार के 
जिसे हम 'बुधिया' 
बाबा कहते हैं। 

         समग्र दृष्टि में संग्रह की समस्त रचनाऐं "चीख़ती आवाज़ें" शीर्षक को असरदार बनाती  हुई कवि के सटीक चिंतन की प्रतिनिधि रचनाऐं हैं। 
कवि ध्रुव सिंह "एकलव्य" जी का शब्दशिल्प अपने आप में अनौखा है जिसमें मौलिकता सहज ही छलक पड़ती है। रचनाओं में जिन पात्रों का चयन किया गया है वे हमें रोज़मर्रा के जीवन में कहीं न कहीं टकरा ही जाते हैं। कवि का मानवीय दृष्टिकोण करुणा से ओतप्रोत है जो समाज के समक्ष विनीत भाव से आग्रह करता है कि ये आवाज़ें अब अनसुनी न की जायें बल्कि इनमें बसी पीड़ा और मर्म को महसूस किया जाय और इन्हें उबारने का मार्ग प्रशस्त किया जाय।  
         सभी रचनाओं का उल्लेख संक्षिप्त समीक्षा में हो पाना मुश्किल होता है।  42 कविताओं के इस संग्रह में भाषा के प्रति कवि की सजगता स्पष्ट झलकती है। कविताओं में तत्सम,तद्भव, विदेशज, आंचलिक, स्थानीय एवं उर्दू  शब्दों का प्रयोग काव्य की व्यापकता एवं ख़ूबसूरती में वृद्धि करता हुआ सटीक बन पड़ा है। अधिकांश कविताऐं मुक्त छंद में लिपिबद्ध हैं। 
            समाज का उपेक्षित तबका आये दिन हमारे समक्ष दुरूह चुनौतियों का सामना करता है। किसान, मज़दूर, स्त्री के विविध रूप, भिखारी, वैश्या, सपेरा,सब्ज़ीवाली, मेहनत-कश कामगार,बेघर  आदि की आवाज़ को मर्मस्पर्शी लहज़े में शब्दांकित करती है पुस्तक "चीख़ती आवाज़ें"
           कवि का प्रगतिशील एवं प्रयोगवादी दृष्टिकोण और तेवर कविताओं में बख़ूबी झलकता है। एक उभरते कवि ने अपना परिचय सामाजिक मूल्यों की सार्थक चर्चा के साथ दिया है। ध्रुव जी को पुस्तक की सफलता हेतु एवं उज्जवल भविष्य की मंगलकामनाऐं। हम उम्मीद करते हैं ध्रुव जी अपनी धारदार लेखनी से साहित्य क्षेत्र  में भरपूर योगदान करते रहेंगे।साहित्याकाश में ध्रुव तारे की भांति चमकते रहें। 

- रवीन्द्र सिंह यादव 
7 अप्रैल 2018 
नई दिल्ली / इटावा     

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

कीलों वाला बिस्तर



बैंक के आगे न सोये बेघर इसलिए लगवाई थी कील, विरोध के बाद वापस लिया फैसला
चित्र साभार : दैनिक भास्कर


शायरों, कवियों की कल्पना में 

होता था काँटों वाला बिस्तर, 

चंगों ने बना दिया है अब 

भाले-सी कीलों वाला 

रूह कंपाने वाला बिस्तर।  


अँग्रेज़ीदां लोगों ने इसे 

ANTI  HOMELESS  IRON  SPIKES कहा है,

ग़रीबों ने अमीरों की दुत्कार को 

ज़माना-दर-ज़माना सहजता से सहा है।     


महानगर मुम्बई में 

एक निजी बैंक के बाहर 

ख़ाली पड़े फ़र्श को 

पाट दिया गया

लम्बी लोहे की 

नुकीली कीलों से 

बनवाया गया 

कीलों वाला बिस्तर,  

ताकि बेघर रात को 

न सो पायें 

हो जायें छू-मंतर । 


गन्दगी गलबहियाँ ग़रीबों  के  डालती  है, 

विपन्नों से दूरी और घृणा अमीरी स्वभावतः पालती है। 


निजी बैंक 

अमीर ग्राहक के स्वागत में  

रेड कारपेट बिछाते  हैं, 

दीन-हीन व्यक्ति के प्रति जीभर के  

संवेदनशून्यता   छलकाते हैं।   


नमन उस जज़्बाती इंसान को 

जो मुद्दे को 

सोशल मीडिया में लाया, 

शर्मिंदगी झेलकर बैंक ने 

कीलों वाला फ़्रेम हटवाया।  


मुख्यधारा मीडिया भी 

अपनी मानसिकता पर ज़रा शर्माया  

नुकीला बिस्तर बनने का न सही 

हटने का समाचार तो लाया। 


ज़रा सोचिये 

कोई अमीर भी  

फिसलकर

डगमगाकर  

इन कीलों पर गिर सकता था......... ! 

#रवीन्द्र सिंह यादव