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शनिवार, 4 अगस्त 2018

आहट सुनायी देती है.....?


मानवी-झुण्ड 

अपने स्वार्थों की रक्षार्थ 

गूढ़ मंसूबे लक्षित रख 

एक संघ का 

निर्माण करता है 

उसमें भी पृथक-पृथक 

धाराओं को सींचता है 

सुखाता है 

अन्तः-सलिला का 

निर्मल प्रचंड प्रखर प्रवाह

मूल्य स्वाधीनता के 

करता है बेरहमी से तबाह 

गढ़ता है 

नक़ली इतिहास के गवाह 

कहता है- 

मैं हूँ आपका ख़ैर-ख़्वाह......(?) 

जब सामने आता है दर्पण 

भ्रम और भ्रांतियाँ 

चीख़कर सत्य से परे 

भाग नहीं पाती हैं 

एक चेहरे के कई रुख़ 

साफ़ नज़र आते हैं 

तब बचता है 

एक ठगा हुआ 

बेकल अकेला इंसान.......

देखता है 

अपनी शक्ल टुकुर-टुकुर

शर्माता है भोलापन  

सुदूर एक बूढ़े वृक्ष की शाख़ से 

जुदा  होकर 

सूखकर ऐंठा हुआ 

एक खुरदुरा पत्ता 

खिड़की से आकर टकराता है 

तन्द्रा टूट जाती है 

वक़्त के उस लमहे में.....!  

© रवीन्द्र सिंह यादव

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