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शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

आत्महीनता


विकास में पिछड़े 

तो आत्महीनता

घर कर गयी 

विमर्श में पतन हुआ 

तो बदलाभाव और हिंसा 

मन में समा गयी  

भूमंडलीकरण के 

मुक्त बाज़ार ने 

इच्छाओं के 

काले घने बादल 

अवसरवादिता की 

कठोर ज़मीन तैयार की 

सामाजिक मूल्यों की

नाज़ुक जड़ों में 

स्वेच्छाचारिता के   

संक्रमणकारी वायरस की  

भयावह दस्तक!

ख़ुशी के बदलते पैमाने 

नक़ली फूल-पत्तियों से 

सजती निर्मोही दीवार  

मनोरंजन मीडिया करते 

भावबोध पर प्रचंड प्रहार 

यह पॉपुलर-कल्चर 

हमें कहाँ ले जा रहा है ? 

© रवीन्द्र सिंह यादव

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद गंभीर और आवश्यक प्रश्न उठाया है आपने आदरणीय सर
    वाक़ई में हम सबका जीवन अकसर "दूसरे क्या करते और कहते हैं " पर निर्भर करता है और भटकाने के काम में मीडिया का भी बड़ा हाथ है और यही कारण है की अधिकतर लोग इसमें खुद को कहीं खो कर दूसरे के अनुरूप हो जाते हैं और अपने अस्तित्व से अन्याय कर बैठते हैं
    उम्दा सटीक रचना 👌
    सादर नमन

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  2. आपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है. https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2019/02/108.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!

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  3. सच ,इतनी तेज़ी से बदलता परिवेश डरावना होता जा रहा है ,सादर नमनस्कार सर

    जवाब देंहटाएं
  4. इच्छाओं के

    काले घने बादल

    अवसरवादिता की

    कठोर ज़मीन तैयार की

    सामाजिक मूल्यों की

    नाज़ुक जड़ों में

    स्वेच्छाचारिता के

    संक्रमणकारी वायरस की

    भयावह दस्तक!....बेहतरीन प्रस्तुति आदरणीय
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. सामाजिक मूल्यों की

    नाज़ुक जड़ों में

    स्वेच्छाचारिता के

    संक्रमणकारी वायरस की

    भयावह दस्तक!
    आदरणीय रवींद्रजी, सबसे तरोताजा उदाहरण है - देशभर में मनाया जा रहा वैलेंटाइन सप्ताह। तथाकथित चॉकलेट दिवस को दोपहर में स्कूल से लौटने में कुछ देर हो गई। रास्ते में एक गली से गुजरते समय अपनी स्कूल की नौवीं कक्षा की दो लड़कियों को दो टपोरी टाइप लड़कों से बातें करते देखा,दोनों के हाथ में बड़े से चॉकलेट्स थे। खैर,इसके आगे मुझे जो कदम उठाना था वो तो मैंने उठाया लेकिन हम कहाँ कहाँ तक पहुँचेंगे ? यह कल्चर हमें विनाश की गर्त में ही ले जाएगा, और कहाँ ? आपने प्रखर शब्दों में इस मुद्दे को उठाया है। साधुवाद।

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