यह सड़ाँध मारती
आब-ओ-हवा
भले ही
दम घोंटने पर
उतारू है,
पर अब करें भी
तो क्या करें
यही तो
हमसफ़र है
दुधारू है।
मिट्टी
पानी
हवा
वनस्पति से
सदियों पुरानी
तासीर चाहते हो,
रात के लकदक
उजालों में
टिमटिमाते
जुगनुओं को
पास बुलाकर
कभी पूछा-
"क्या चाहते हो?"
तल्ख़ियों से
भागते-भागते
आख़िर
हासिल क्या हुआ?
ख़र्चे दूर होकर भी
पास लगते हैं,
ये बेडौल
बेतरतीब
बेहिसाब
फैले शहरों के मंज़र
उदास लगते हैं।
फ़ख़्र अब तो
गाँव को भी
नहीं रहा
अपनी रुमानियत पर,
अब तो कौए भी
सवाल उठा रहे हैं
हर मोड़ पर
लड़खड़ाती इंसानियत पर।
काला धुआँ
उखड़ती साँसों पर
दस्तक दे रहा है
क़ुदरत अब
बहुत रूठी हुई लगती है,
मानव सभ्यता
चंद सीढ़ियाँ ही तो
चढ़ी है विकास कीं
कोख में अब संतति
डर-डरकर पलती है।
© रवीन्द्र सिंह यादव
आदरणीय रवींद्र जी आपकी रचना पढ़ी। सत्य कहा आपने अब लोगों की सुनता ही कौन है आपको सुनना है तो मेरे मन की बात सुनिये और वही लिखिये। क्योंकि वही अब हर गरीब व्यक्ति का उदरपूर्ति करने में सक्षम है। परन्तु आपकी बड़ी ही दिक़्क़त है कि आप भी अपने मन की ही सुनते हैं तभी तो यह उत्कृष्ट रचना आपकी लेखनी से निकल कर आयी है। इस उत्कृष्ट सृजन हेतु साधुवाद। सादर 'एकलव्य'
जवाब देंहटाएंहे निराशावादी ! तुम से तो सावन का अँधा अच्छा जिसे सब कुछ हरा-हरा ही दिखाई देता है.
जवाब देंहटाएंतुम देश में हो रहे विकास को देख नहीं पाते हो, उसे सुन नहीं पाते हो, उसे छू नहीं पाते हो, उसे सूंघ नहीं पाते हो, उसके बारे में बोल नहीं पाते हो. इसीलिए उसके बारे में लिख नहीं पाते हो.
विकास हुआ है. गरीबी, भुखमरी, अपराध, अशिक्षा आदि सभी क्षेत्रों में विकास हुआ है.
यह सड़ांध मारती आबोहवा भले ही दम घुटने पर उतारू हो अब करें भी तो क्या करें यही तो हम सफर दुधारू है "वाह प्रथम चंद पंक्तियां ही कविता का तात्पर्य समझा गई.... मुख बधिर बन बैठे हैं सभी आबोहवा की किसी को चिंता नहीं तमाम रास्ते खुद से ही बंद कर रहे हैं यह कवि की संवेदनशीलता ही है... जो हर बार चीखती हुई सबको सचेत करने आ जाती हैं आप जब भी लिखते हैं हमेशा आपकी कविताओं के पीछे एक सत्य एक मर्म छिपा होता है...जिसे समझ कर भी लोग ना समझने का ढोंग करते हैं कि ये उनकी नासमझी ही कहलाएगी.. खैर इतनी उत्कृष्ट रचना के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई कम शब्दों में अपने अर्थव्यवस्था की खाल उधेड़ कर रख दी नमन आपको....!!
जवाब देंहटाएंआपने जितनी भी तस्वीरें जोड़ी हैं सभी हमें सचेत करने के लिए काफी है कि हम किस ओर जा रहे हैं तस्वीरों की सही चयन से यह कविता और भी दमदार बन गई है💐💐💐
जवाब देंहटाएंरविन्द्र जी ,तस्वीरें ही बहुत कुछ कह गईंं...।
जवाब देंहटाएंएक हद तक हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं इस विषम परिस्थिति के लिए ..।कब जागरूकता आएगी ,समझ से परे है .घर का कूड़ा ,बाहर डालकर स्वच्छता का दावा करते हैं हम ..।
इस सामुदायिक विभीषिका की जड़ में हमारी खुद की व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। हम दूसरों पर अंगुली नहीं उठा सकते।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (13-11-2019) को "गठबन्धन की नाव" (चर्चा अंक- 3518) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 12 नवंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद! ,
पर्यावरण प्रदूषण भयावहता की विकास के नाम पर अनदेखी
जवाब देंहटाएंमानव समाज की ऐसी भूल है जिसके दुष्परिणाम भी स्वयं मानव समाज को भोगने हैं । जागरूकता को प्रेरित करती सशक्त
रचना ।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 29 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंइस चकाचौंध भरी दुनिया में जुगनू की क्या विसात
जवाब देंहटाएंसड़ांध में नकली खुशबू छिड़ककर सुगंध का एहसास
विमारियों पर विज्ञान की खोज एवं निजात
क्या कम है प्रगतिवाद के लिए...
वो सुहाना मौसम अब तस्वीरोंं में ही देखना है
और ये संवेदना सिर्फ कविताओं में
बहुत लाजवाब सृजन...