तिल-तिल मिटना जीवन का,
विराम स्मृति-खंडहर में मन का।
व्यथित किया ताप ने
ह्रदय को सीमा तक,
वेदना उभरी कराहकर
रीती गगरी सब्र की अचानक।
अज्ञात अभिशाप आतुर हुआ
बाँहें पसारे सीमाहीन क्षितिज पर
आकुल आवेश में अभिसार को
चिर-तृप्ति का कलनिनाद
अभिराम अनुरंजित विवशता से
चाहती जर्जर वाणी वर।
एकांत की चाह बलबती हुई
अशांत मन घर से बाग़ तक ले गया,
हलचल ने ध्यान भंग किया
दिनांत का मनोरम दृश्य
सुदूर पहाड़ी तक जाने का
स्पंदित साँसों को साहस दे गया।
पहाड़ी के सामने एक और पहाड़ी
प्रांतर-भाग में मनोहारी हरीतिमा से
आच्छादित रमणीय गहरी खाई,
सामने पहाड़ी के वक्ष पर उभरा
अति अरुणता से आप्लावित कैनवास
शनैः-शनैः आयी अजानी सुरभित
बेसुध बयार आँचल-सी सरसराती हुई।
आहिस्ता-आहिस्ता ह्रदय नुमूदार हुआ
व्याकुल विशद विभाजित पिपासा
सकल समवेत छायी कैनवास पर,
दृश्य-अदृश्य चेहरे अपने-अपने
अति अलंकृत धनुष की प्रत्यंचा ताने
छोड़ रहे थे तीखे तेज़ नुकीले नफ़रतों के
नीरव-निनादित तीर मासूम हृदय पर।
किंचित गुमनाम चेहरे
पर्याप्त फ़ासले पर खड़े थे
हाथों में रंगीन सुवासित सुमन
और शीतल मरहम लिये,
ह्रदय को बींधती तीखी चुभन
सहते-सहते असहनीय हुई तो
कविता से कहा-
"समेट लो कैनवास रजनीगंधा-सा रहम लिये।"
© रवीन्द्र सिंह यादव