तूफ़ान आएंगे,
सैलाब आएंगे,
उखाड़ेंगे,
उड़ा ले जायेंगे
उड़ा ले जायेंगे
उन्नत , उद्दंड दरख़्तों को।
दूब मुस्कायेगी,
अपनी लघुता / विनम्रता पर ,
पृथ्वी पर पड़े-पड़े पसरने पर।
छाँव न भी दे सके तो क्या,
घात-प्रतिघात की,
रेतीली पगडंडी पर,
घाम की तीव्र तपिश से,
तपे पीड़ा के पाँव,
मुझपर विश्राम पाएंगे,
दूब को दुलार से सहलायेंगे।
@रवीन्द्र सिंह यादव
दुर्वा तू हरीतिमा , अनंता ,अमृता , शतपर्वा -
जवाब देंहटाएंधरा के सीने से लिपटी तू मुस्काती सगर्वा,
मंगल कारज ना सोहे तुम बिन -
तूम शोभा उपवन की
विनय का पर्याय बनी तुम
तुम प्रिय गौरीनंदन की
शुभता की अक्षुण प्रतीक बनी
महौषधि , अटल ,दीर्घजीवी अपूर्वा--
धरा के सीने से लिपटी तू मुस्काती सगर्वा,
आदरणीय रविन्द्र जी ------ डूब की महिमा को दर्शाती आपकी पंक्तियों म को समर्पित कुछ उपरोक्त भाव मेरे भी | दुर्वा विनम्रता का दूसरा नाम है और धरा से शाश्वत नाता है इसका | गुरु नानक देव भी इसके महत्व को नकार ना सके और इसका उदाहरण दे कह उठे ---------
नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब
और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।
आपने बहुत सरलता से इसके महत्व को दर्शाया -------
तपे पीड़ा के पाँव,
मुझपर विश्राम पाएंगे,
दूब को दुलार से सहलायेंगे।-------- बहुत ही सुंदर सृजन !!!!!!!!!!!!!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (01-10-2019) को "तपे पीड़ा के पाँव" (चर्चा अंक- 3475) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
घात-प्रतिघात की,
जवाब देंहटाएंरेतीली पगडंडी पर,
घाम की तीव्र तपिश से,
तपे पीड़ा के पाँव,
मुझपर विश्राम पाएंगे.... आदरणीय रवीन्द्र जी कहने को तो आपकी सम्पूर्ण रचना लाजवाब है परन्तु आपके ये भाव शब्द रुपी मोतियों
में गुँथकर त्याग व समर्पण का सम्पूर्ण पाठ पढ़ा हृदय में अपनी अमिट छाप छोड़ गये। प्रेरणा से ओत-प्रोत सुन्दर सृजन के लिये आपको ढेरों शुभकामनाएँ।
आपकी लेखनी बुलंदियों को छुए यही प्रार्थना है प्रकृति से।
सादर।
बहुत सुंदर कोमल भाव लिए उत्कृष्ट सृजन।
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