ताजमहल को देखते आगरा क़िले में क़ैद मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने शायद ऐसा भी सोचा होगा...
( मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब अपनी क्रूरता के लिये कुख्यात हुआ। बड़े भाई दारा शिकोह सहित अपने तीनों भाइयों ( दो अन्य शाह शुज़ा व मुराद बख़्श ) को मौत के घाट उतारकर वृद्ध पिता शहंशाह शाहजहाँ को विलासता पर जनता का धन ख़र्चने ( ताजमहल का निर्माण सन् 1632 में प्रारम्भ हुआ जो अगले 20 वर्षों में पूरा हुआ ) के आरोप में सन् 1658 में आगरा के लाल क़िले ( मुग़ल सम्राट अकबर द्वारा निर्मित, 8 साल निर्माण कार्य चलने के बाद सन् 1573 में बनकर तैयार हुआ ) में क़ैदकर अतिमानव औरंगज़ेब गद्दी पर बैठा। शाहजहाँ द्वारा कराये गये ताजमहल के निर्माण का औरंगज़ेब ने तीखा विरोध किया था।
हालाँकि मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के बारे में उल्लेख मिलते हैं कि वह अपने निजी ख़र्च के लिये टोपियाँ सिलने और क़ुरान की नक़ल ( कॉपी ) तैयार करने से हुई कमाई का उपयोग किया करता था।
आगरा के लाल क़िले से दक्षिण-पूर्व दिशा में ( लगभग 3 किमी दूरी सड़क मार्ग से ) यमुना के किनारे स्थित ताजमहल स्पष्ट दिखायी देता है। शहंशाह शाहजहाँ ने अपनी मृत्यु ( सन् 1666, आयु 74 वर्ष ) से पूर्व नज़रबंदी के लगभग साढ़े सात साल कैसे तन्हा रहकर गुज़ारे होंगे जिसने 30 साल तक ख़ुद शहंशाह का ताज पहनकर वक़्त की आती-जाती रौनकों को जिया हो...
जारी...
इंतक़ाल के बाद शाहजहाँ को भी ताजमहल में उनकी प्यारी बेग़म मुमताज़ महल (जो सन् 1631 में ख़ुदा को प्यारी हो गयी थीं ) की क़ब्र के बग़ल में दफ़नाया गया।
पेश है एक नज़्म जिसे मैं अपने कल्पनालोक में शाहजहाँ के जज़्बात कहूँगा। त्रुटियों के लिए क़लम के सरताज, कला के क़द्र-दान क्षमा करें, उपयुक्त सुझाव दें...)
यह रचना पढ़ने वाले के एहसासों से गुज़रती हुई उसे अतीत के उन ख़ास पलों में ले जाती हैं जहाँ क़ैद में विरह की पीड़ा भोग रहा एक मज़बूर शहंशाह अपनी महबूबा को टूटे दिल से याद कर रहा है उसकी सच्ची मोहब्बत आज भी बेमिशाल है ताज महल के रूप में।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (02-10-2019) को "बापू जी का जन्मदिन" (चर्चा अंक- 3476) पर भी होगी। -- सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। -- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ। सादर...! डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
यह रचना पढ़ने वाले के एहसासों से गुज़रती हुई उसे अतीत के उन ख़ास पलों में ले जाती हैं जहाँ क़ैद में विरह की पीड़ा भोग रहा एक मज़बूर शहंशाह अपनी महबूबा को टूटे दिल से याद कर रहा है उसकी सच्ची मोहब्बत आज भी बेमिशाल है ताज महल के रूप में।
जवाब देंहटाएंबार-बार पढ़ी यह रचना हर बार नया रंग बिखेर गयी।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (02-10-2019) को "बापू जी का जन्मदिन" (चर्चा अंक- 3476) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दर्द भरी नज़्म है, शाहजॅ॑हा के सभी ग़म विरह और बेटे द्वारा दी गई मानसिक ताड़ना का हर स्वर मुखरित हुआ।
जवाब देंहटाएंउम्दा/बेहतरीन।
बहुत ही मार्मिक नज़्म, दर्द भरे एहसासात को पिरोया है अल्फाज़ में लाज़बाब सृजन आदरणीय 👌)
जवाब देंहटाएंसादर