मैं मज़दूर हूँ
किंतु मजबूर नहीं,
राह मिल गयी
तो मंज़िल दूर नहीं ।
बाँध बनाऊँ सड़क बनाऊँ,
बाज़ारों की तड़क-भड़क बनाऊँ,
जीवन की राहें औरों की आसान बनाऊँ,
ख़ुद पग-पग पर अपमान सहूँ ग़म खाऊँ।
हथियार बनाऊँ साज़ बनाऊँ,
सुई बनाऊँ जहाज़ बनाऊँ ,
रेल बनाऊँ मंच सजाऊँ,
न कोई प्रपंच रचाऊँ।
लोग कहते हैं -
बादशाहों की पसंद निर्मम थी,
ख़ून-पसीना बहाने के बाद,
कटवा दिये गये मेरे हाथ ,
कैसा क़ानून है...?
न्याय क्यों लगता नहीं मेरे हाथ?
मुझपर आरोप है
आबादी बढ़ाने का,
कोई नहीं सोचता
मेरी मुश्किलों की परिधि घटाने का।
मेरी झोपड़ी में
आज भी दिया जलता है,
अँधेरे महलों को
मेरा रौशन चेहरा खलता है।
ईश्वर के नाम पर
धूर्त ठग लेते हैं मुझे,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चक्रव्यूह रचकर
शिक्षा और साधन से दूर कर देते हैं मुझे।
आ गयीं मशीनें
छीनने मेरे मुँह का निबाला,
हाथ आया जो रुपया
बुलाकर झपट लेती मधुशाला।
दबी हुई है मेरी चीख़
उन महलों के नीचे,
आवाज़ बुलंद करके रहूँगा
नहीं हटूँगा पीछे।
मेरी मेहनत के एवज़ में
जो देते मुझको भीख,
श्रम का आदर करना
अब जाएँगे वो सीख।
रहे एकता अमर हमारी
न हो हमसे भूल,
तभी खिलेंगे इस बग़िया में
श्रम के पावन फूल।
@रवीन्द्र सिंह यादव
किंतु मजबूर नहीं,
राह मिल गयी
तो मंज़िल दूर नहीं ।
बाँध बनाऊँ सड़क बनाऊँ,
बाज़ारों की तड़क-भड़क बनाऊँ,
जीवन की राहें औरों की आसान बनाऊँ,
ख़ुद पग-पग पर अपमान सहूँ ग़म खाऊँ।
हथियार बनाऊँ साज़ बनाऊँ,
सुई बनाऊँ जहाज़ बनाऊँ ,
रेल बनाऊँ मंच सजाऊँ,
न कोई प्रपंच रचाऊँ।
लोग कहते हैं -
बादशाहों की पसंद निर्मम थी,
ख़ून-पसीना बहाने के बाद,
कटवा दिये गये मेरे हाथ ,
कैसा क़ानून है...?
न्याय क्यों लगता नहीं मेरे हाथ?
मुझपर आरोप है
आबादी बढ़ाने का,
कोई नहीं सोचता
मेरी मुश्किलों की परिधि घटाने का।
मेरी झोपड़ी में
आज भी दिया जलता है,
अँधेरे महलों को
मेरा रौशन चेहरा खलता है।
ईश्वर के नाम पर
धूर्त ठग लेते हैं मुझे,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चक्रव्यूह रचकर
शिक्षा और साधन से दूर कर देते हैं मुझे।
आ गयीं मशीनें
छीनने मेरे मुँह का निबाला,
हाथ आया जो रुपया
बुलाकर झपट लेती मधुशाला।
दबी हुई है मेरी चीख़
उन महलों के नीचे,
आवाज़ बुलंद करके रहूँगा
नहीं हटूँगा पीछे।
मेरी मेहनत के एवज़ में
जो देते मुझको भीख,
श्रम का आदर करना
अब जाएँगे वो सीख।
रहे एकता अमर हमारी
न हो हमसे भूल,
तभी खिलेंगे इस बग़िया में
श्रम के पावन फूल।
@रवीन्द्र सिंह यादव
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21 -07-2019) को "अहसासों की पगडंडी " (चर्चा अंक- 3403) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंविशिष्ट रचना सार्थक सुंदर।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(२३-०५-२०२०) को शब्द-सृजन- २२ "मज़दूर/ मजूर /श्रमिक/श्रमजीवी" (चर्चा अंक-३७११) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आ गयीं मशीनें
जवाब देंहटाएंछीनने मेरे मुँह का निबाला,
हाथ आया जो रुपया
बुलाकर झपट लेती मधुशाला।
वाह!!!
मजदूरों की दशा का सही मूल्यांकन करती लाजवाब प्रस्तुति...।
श्रम का आदर करना
जवाब देंहटाएंअब जाएँगे वो सीख।
अगर ये अपना मोल समझ ले तो सबको सबक सीखा ही देंगे ,मार्मिक सृजन सर ,सादर नमन
वर्तमान आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था पर एक ज़ोरदार तमाचा !
जवाब देंहटाएंवैसे मेहनतकश इंसानों का जो इतनी मेहनत से खून पीते हैं, उनको भी तो मज़दूर ही माना जाना चाहिए.
अब बदलाव आ जाते तो पता नहीं, वर्ना हर काल के लिए सटीक रचना।
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय।
सहज भाव प्रवाह।
वाह!अनुज रविन्द्र जी ,बहुत खूब !
जवाब देंहटाएं