अनिश्चितता
असुरक्षा
अस्थिरता का
दौर था कभी
तत्कालीन परिस्थितियोंवश
पूर्वाग्रही मंशा से
पूर्वाग्रही मंशा से
स्त्री को
जकड़ा गया
वर्जना की सख़्त बेड़ियों में
वर्जनाओं की मज़बूत कड़ियों में
सामाजिक नियमावली के
सुनहरे कड़े जाल में
स्वतंत्रता से
रहे परे
हर हाल में
आज स्थिरता का
अनुकूल दौर है
क़ानून हैं
सहूलियतें हैं
अवसर हैं
भौतिकता का अंबार है
अपराध का बाज़ार है
परिभाषित रिश्ते हैं
गौरव है
गरिमा है
गरिमा है
पद है
किंतु
आज भी
उसकी एक हद है
थमा दिया गया उसे
अदृश्य घोषणा-पत्र
जिसमें
"डूज़ एन्ड डोंट"
सीमाओं की लकीरें
हाईलाइट हो जाती हैं
फ्लोरोसेंट लाइट में
चमकती रहती हैं
सतत एहसास दिलाने के लिए
कि स्वतंत्रता दूर की कौड़ी है!
© रवीन्द्र सिंह यादव
निःशब्द...🙏🙏
जवाब देंहटाएंउसकी एक हद है
जवाब देंहटाएंथमा दिया गया उसे
अदृश्य घोषणा-पत्र......मार्मिक रचना आदरणीय
बेहद हृदयस्पर्शी
जवाब देंहटाएंवाह!!!!
जवाब देंहटाएंबेहद लाजवाब....
स्वतन्त्रता की सीमाएं स्त्री के लिए.....
सटीक प्रस्तुति।
वाह!! रविन्द्र जी ,,,लाजवाब !!
जवाब देंहटाएंगहराई तक वर्णन किया है श्रीमान आपने .. जरुरी हो गया है आज की शक्ति स्वयं को पहचाने ,, भौतिकता का त्याग कर खुद को पटल पर लाये |
जवाब देंहटाएंसत्य रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता ! हलाहल जैसा सच !
जवाब देंहटाएंस्त्री-स्वातंत्र्य के नाम पर स्त्री का उपयोगितावादी दृष्टिकोण से दोहन करने की कुटिल तकनीक !
स्त्री ! तुम पढ़ो-लिखो ताकि घर के लिए कुछ कमाई कर के ला सको.
अपने बच्चों की अवैतनिक ट्यूटर बन सको.
कुशलता और मितव्यता के साथ गृह-सञ्चालन कर सको,
पति की इच्छानुसार फैशन कर सज सको.
उसके दोस्तों का ढंग से आदर-सत्कार कर सको,
किताबों से, टीवी और इन्टरनेट पर नए-नए व्यंजन बनाना सीख सको.
लेकिन यह स्वतंत्रता, खूंटे से बंधी उस गाय की स्वतंत्रता के सामान है जिसकी रस्सी लम्बी तो कर दी गयी है पर अभी भी वह खूंटे से बंधी हुई है.
उत्तम रचना दो से तीन सदी की व्यथित विडम्बना को छोटी सी रचना में समेट लेना गागर में सागर जैसा है, भाव स्पष्ट और मर्म को छूने वाले।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद अप्रतिम अभिव्यक्ति।
कुछ मेरी कलम से..
वर्जनाओं में बंधी नारी के पास जो है उसे गंवाकर अपनी क्षरित दशा से उधर्वमुखी हो उठने की स्पर्द्धा में वर्जनाओं को तोड़, पुरुष वर्ग की भांति नैसर्गिक कोमल भावों का त्याग कर। अपने को असंवेदनशील, पाषाण बनाती नारी, प्रकृति से विकृति और जाती नारी, जो प्राप्य है उसे, जो नहीं है उसे पाने के लिए गंवाती नारी।
पुरूष की छाया से निकल उसकी सहचरी नही प्रतिस्पर्धी बनती नारी।
अपनी दशा की काफी हद तक खुद जिम्मेदार हैं।
सच में नारी को सब मिला है आधुनिकता और बराबरी के नाम पर | पर कहाँ है ओ समानता के अधिकार ? सब कर्तव्य की लम्बी सूची और अधिकार के नाम पर ज्यादातर छलावा यही है उसकी नियति | सशक्त रचना के लिए हार्दिक बधाई |
जवाब देंहटाएंसटीक अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंबहुत से प्रश्न भी खड़े करती है रचना ...
जवाब देंहटाएंकितनी सीमाएं आखिर पुरुष बनाएगा स्त्री के लिए ... परिस्थिति अनुकूल है या नहीं ... ये भी कौन सोचेगा ... क्या पुरुष ... पर क्यों ...
ज्वलंत विषय पे सार्थक प्रश्न खड़े करती रचना ...
सटीक और सार्थक रचना..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता
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बहुत उम्दा
जवाब देंहटाएंजब तक स्त्री अपने मन से स्वतंत्र नहीं होगी, तब तक नारी स्वतंत्रता की बातें बेमानी हैं। अधिकार माँगने पड़ते हैं, बिना माँगे सिर्फ जिम्मेदारियाँ मिलती हैं। पुनः एक ज्वलंत विषय पर सार्थक रचना आपकी ! बधाई एवं साधुवाद।
जवाब देंहटाएंस्त्री स्वतंत्रता के नाम पर स्त्री को पहले ज्यादा छला जा रहा है. स्त्रियों को ही तय करना है किस दिशा में जाना है और स्त्री स्वाभिमान को चुनौती देने वाली बेड़ी को स्त्रीयां ही काट सकती हैं. विचारणीय प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २६ नवंबर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
आदरणीय,
जवाब देंहटाएंसशक्त अभिव्यक्ति।। समाज का कड़वा सच है।सुंदर रचना के लिएआपको बधाई है।
सादर।
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