अरे!
यह क्या ?
अराजकता में झुलसता मेरा देश,
अभागी चीख़ में सिसकता परिवेश।
सरकारी शब्दजाल ने
ऊबड़खाबड़ घाटियों में धकेला है,
शहर-शहर विरोध का
महाविकट स्वस्फूर्त रेला है,
होंठ भींचे मुट्ठियाँ कसते
बेरोज़गार नौजवान
कोई मुँह छिपाकर देशद्रोही
जलाता अपना ही प्यारा देश,
अभागी चीख़ में सिसकता परिवेश।
रक्षकों को भक्षक बनते देख रहा हूँ,
गुनाहगार को सरपरस्ती मिलते देख रहा हूँ,
नेताओं को ज़हर उगलते देख रहा हूँ,
दुष्ट ने धारण किया है
भलेमानस का नक़ली वेश,
अभागी चीख़ में सिसकता परिवेश।
दबाने के लिये विरोधी-स्वर
केस ही केस दर्ज़ करती सरकार
औरतों के बदन से खसोट लेगी जेवर
बच्चों के मुँह से कौर
कुछ वकीलों के हो जायेंगे
सफ़ेद से गहरे काले केश
अभागी चीख़ में सिसकता परिवेश।
मानवता के मख़ौल में
खीज नहीं तरस आता है,
देखिए!
चरित्र-निर्माण का भव्य भवन
अब कितना खोखला नज़र आता है,
नफ़रत के तह-ख़ानों में
बैठे हैं सियासतदाँ
इनको भाता सड़कों पर
बहता ख़ून और क्लेश
अभागी चीख़ में सिसकता परिवेश।
दमन दहशत दुर्भावना से
जी नहीं भरता सत्ताधीशों का,
अपने लबादे में रखते हैं ख़ंजर छिपाकर
क़त्ल होता नागरिक के नाज़ुक अरमानों का
गुम है रहबर कहीं बेचारे मासूम शीशों का,
धनपति पाखंडी अवसरवादी
जमकर लूट रहे हैं देश,
अभागी चीख़ में सिसकता परिवेश।
© रवीन्द्र सिंह यादव