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शुक्रवार, 6 मार्च 2020

क़ातिल दंगाई तुम कहाँ हो?

फ़रवरी 2020

अंतिम सप्ताह

दिल्ली में दंगा

चीख़-पुकार आह ही आह!

गिरीं लाशें


लुटे-जले मकान-दुकान

 
लाशों के सौदागरों के बयान

एंकर-एंकरनियों की तलवार / म्यान 


पीड़ितों का पलायन 

बिलखते आँगन

क्षत-विक्षत लाशों के ढेर

घायलों की दारुण टेर

विधवाओं का विकट विलाप

यतीमों का दिल दहलाता आलाप

माँओं की करुण सिसकी

बहनों की मार्मिक हिचकी

इंटरनेट पर जश्न और मातम

वैमनस्य का घनघोर तम

ध्वस्त होता विश्वास

टूटती आस

मानवता निराश

तड़पती सांस

भयावह मंज़र

निगाह में ख़ंजर

निडर लोग

पुलिस का योग

सब दिखायी / सुनायी दे रहा है इलाक़े में...

लेकिन क़ातिल दंगाई!

तुम कहाँ हो ?

घरों में

पुलिस की बताई माँदों में

नेताओं की कोठी पर

धर्म के ठेकेदारों की ड्योढ़ी पर  

डॉन / दलाल / दोस्त / रिश्तेदार की शरण में!

बस, ट्रेन, मेट्रो, ऑटोरिक्शा या कैब में?

नहीं !

तुम छिप रहे हो अपने आप से

तुम्हारे नाम की लिस्ट बन रही है

तुम्हें गोपनीय मीटिंग में तमग़े से नवाज़ा जाने वाला है

तुम्हारे कुकृत्यों को सराहा जाने वाला है

तुम्हारा और भी बुरा वक़्त आने वाला है

तुम्हें और अधिक क्रूर बर्बर हत्यारा बनाया जाना है

नया टारगेट थमाया जाना है

कुछ और घरों के चराग़ों को भटकाया जाना है

तुम्हारे नशे की डोज़ को और बढ़ाया जाना है

क्योंकि तुम्हारे दम पर

कुछ लोगों को और बड़ा बनना है

तुम्हें नफ़रत के सौदागरों का मोहरा बनना है

तुम्हारा नाम


चिह्नित / संभावित दंगाइयों की लिस्ट से 

काट दिया जाएगा

तुम्हारा परिवार दबिश से मुक्त रहेगा

कब तक ?

जब तक

तुम उनके इशारों पर नाचते रहोगे

क्योंकि तुम्हारा मार्ग एकांगी है

इतिहास में ऐसा ही लिखा जाएगा

जिसे कौन मिटा पाएगा?

© रवीन्द्र सिंह यादव

7 टिप्‍पणियां:

  1. प्यादे मारेंगे या मारे जाएंगे
    राजा-रानी औ वज़ीर मुस्काएंगे
    थोड़े घड़ियाली आंसू टपकाएंगे
    फिर फ़साद की नई कहानी लाएँगे

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. उफ्फ्फ!!!
    आदरणीय सर आपकी कलम ने कटु सत्य से पर्दा उठा दिया। उचित कहा आपने ये दंगाई हमारे बीच से ही निकलते हैं,राजनीति के शकुनीयों द्वारा भटकाए जाते हैं। हर अपराध के दंड से निर्भीक खुले आम घूमते है फिर किसी उपद्रव,किसी हिंसा को अंजाम देने। किसी के घर का उजाला छीनने। जाने कहाँ अपना विवेक खो बैठे ये दंगाई तो वास्तव में बस मोहरा हैं जिनकी आड़ में कुछ लोग खुद को छुपाए बैठे हैं।....ये कहना नही चाहिये पर सत्य तो यही है कि.....
    अपना देश अपनो से ही हार रहा है,
    अँधेरे से लड़ती मशालें कोई बुझा रहा है।

    समसामयिक,उत्तम सृजन हेतु आभार संग बधाई आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏

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  4. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (7-3-2020 ) को शब्द-सृजन-11 " आँगन " (चर्चाअंक -3633) पर भी होगी

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

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  5. तुम्हारे नशे की डोज़ को और बढ़ाया जाना है
    क्योंकि तुम्हारे दम पर
    कुछ लोगों को और बड़ा बनना है
    तुम्हें नफ़रत के सौदागरों का मोहरा बनना है
    सही कहा ये दंगाई खरीदे हुए प्यादे ही हैं बहुत सटीक, समसामयिक....बहुत ही लाजवाब सृजन
    वाह!!!!

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  6. दिल्ली का दर्द.... निशब्द करती समसामयिक रचना. शब्द शब्द में आम जन का दर्द उभर कर पलकें भिगों रहा है.बहुत ही मार्मिक...
    सादर

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