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सोमवार, 24 दिसंबर 2018

श्रद्धाँजलि

श्रद्धाँजलि !

जला दी गयी अंजलि !

ताँडव करती 

ख़ौफ़नाक बर्बरता 

चीख़ती-चिल्लाती 

कराहती मानवता 

ज्वाला में 

धधका होगा शरीर 

सही गयी होगी 

कैसे तपन-पीर

बेख़ौफ़ दरिंदे 

क्या संदेश देना चाहते हैं ?

स्त्री को कौन-सा 

सबक़ सिखाना चाहते हैं?

न्याय के लिये 

भटकते लाचारों को देख 

करते हैं अपराधी अट्टहास 

लचर व्यवस्था देख-देख!    

© रवीन्द्र सिंह यादव

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

वक़्त



एक शिल्पी है वक़्त 

गढ़ता है दिन-रात

उकेरता अद्भुत नक़्क़ाशी 

बिखेरता रंग लिये बहुरँगी कूची  

पलछिन पहर हैं पाँखुरियाँ 

बजतीं सुरीली बाँसुरियाँ 

सृजित करता है 

स्याह-उज्ज्वळ इतिहास 

पल-पल परिवर्तित प्रकृति 

घड़ियाँ करतीं परिहास  

नसीम-सा गुज़रता है 

हर्ष-विषाद के पड़ावों से 

मरहम हो जाता है 

आप्लावित होता है भावों से 

उजलत मानव अभिलाषा 

कोसती है वक़्त को 

ख़ुद ठहरकर 

सुबह-शाम 

दोष देती वक़्त को  

वक़्त की गर्दिश को 

सीने से लगा लेते हैं हम 

ठोकरें और थपेड़े वक़्त के 

ज़ेहन में क्यों सजा लेते हैं हम ?

© रवीन्द्र सिंह यादव


उजलत = उतावली,व्यग्र 

नसीम = जो दूसरों की सहायता करता हो  

रविवार, 16 दिसंबर 2018

ख़ुशी और ग़म


ख़ुशी आयी

ख़ुशी चली गयी 

ख़ुशी आख़िर 

ठहरती क्यों नहीं ?

आँख की चमक 

मनमोहक हुई 

कुछ देर के लिये 

फिर वही 

रूखा रुआँसापन

ग़म आता है 

जगह बनाता है 

ठहर जाता है 

बेशर्मी से

ज़िन्दगी को 

बोझिल बनाने 

भारी क़दमों से 

दुरूह सफ़र 

तय करने के लिये   

ख़ुशी और ग़म का 

अभीष्ट अनुपात

तय करते-करते 

एक जीवन बीत जाता है  

अमृत-घट रीत जाता है। 

© रवीन्द्र सिंह यादव

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

विटामिन डी ( वर्ण पिरामिड )

ये
धूप
रोकती
अट्टालिका
सहते     हुए
हड्डियों का दर्द
कोसते धूप-बाधा।



रोको
सौगात
क़ुदरती
भास्कर देता
निदाघ निर्बाध
विटामिन डी मुफ़्त।



हो
गया
शहरी
सिटीज़न
छाँव का आदी
घाम के दर्शन
हैं सुकून की वादी। 


है
धूप
गायब
तहख़ाने
हाट-बाज़ार
दवाई-दवाई
जेब ख़ूब चिल्लाई।  


लो 
घुटा  
इंसान 
अभिव्यक्ति 
तलाशती     है 
छायावादी  युग 
प्रगति के सोपान। 

ये 
पौधे 
पोषित 
पल्लवित  
पंछी उड़ान 
प्यारा कलरव
धूप का ही साम्राज्य।  

© रवीन्द्र सिंह यादव

निदाघ = गर्मी, ताप, धूप 



शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

अमरबेल (वर्ण पिरामिड )



मैं 
रहूँ 
सदैव 
हरी-भरी 
पैरासूट-सी 
आच्छादित होती 
मेज़बान    पेड़     पे।  



मैं 
तो हूँ 
घोषित 
परजीवी 
आतिथेय से  
हासिल पोषण 
झेलूँ  दोषारोपण।



जो 
होता 
मुझमें 
क्लोरोफिल 
स्वाभिमान से
सजती-खिलती   
जीती   अमरबेल। 

© रवीन्द्र सिंह यादव