सर्दी तुम हो बलवान
कल-कल करती नदी का प्रवाह
रोकने भर की है तुम में जान
जम जाती है बहती नदी
बर्फ़ीली हवाओं को तीखा बनाने
आती हो निरीह को सहना सिखाने
तुम जब कोहरे के पंख लेकर
उतरती हो धरा पर
दृष्टि क्षमता घट जाती है जीव की
चिड़िया भी उड़ नहीं पाती पर पसार कर
अदृश्य हो जाते हैं भानु,शशि और सितारे
भौतिक जीवन चलता है तकनीक के सहारे
एक ह्रदय है
धड़-धड़ धड़कता रहता है जीवनभर अनवरत
जमने नहीं देता धमनियों-शिराओं में बहता रक्त
इसके भी अपने मौसम हैं
अंगों के सह-अस्तित्त्व को सहेजे
कुछ मनचीते
कुछ बोझिल-से!
©रवीन्द्र सिंह यादव