रविवार, 27 अक्टूबर 2019

सृष्टि में अँधकार का अस्तित्त्व क्यों है?

तिमिर भय ने
बढ़ाया है
उजास से लगाव,
ज्ञानज्योति ने
चेतना से जोड़ा
तमस का
स्वरूपबोध और चाव।

घुप्प अँधकार में
अमुक-अमुक वस्तुएँ
पहचानने का हुनर,
पहाड़-पर्वत
कुआँ-खाई
नदी-नाले
अँधेरे में होते किधर?

कैसी साध्य-असाध्य
धारणा है अँधेरा,
अहम अनिवार्यता भी है
सृष्टि में अँधेरा।

कृष्णपक्ष की
विकट अँधियारी रातें,
काली घटाओं में घिरा चाँद
पृथ्वी पर अस्थायी तम के हेतु हैं। 

भीरुता से जुड़ा अँधेरा
विद्या बुद्धि बल से भगाने में
दिन-रात जुटे हैं हम,
सृष्टि में अँधकार का
अस्तित्त्व क्यों है?
उसे आलोचने के बजाय
एक दीप जलाकर
समझ सकते हैं हम।  

© रवीन्द्र सिंह यादव

शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

ख़िज़ाँ ने फिर अपना रुख़ क्यों मोड़ा है?




मिटकर मेहंदी को

रचते सबने देखा है,

उजड़कर मोहब्बत को

रंग लाते देखा है?


चमन में बहारों का

बस वक़्त थोड़ा है,

ख़िज़ाँ ने फिर अपना

रुख़ क्यों मोड़ा है?


ज़माने के सितम से

न छूटता दामन है,

जुदाई से बड़ा

भला कोई इम्तिहान है?


मज़बूरी के दायरों में

हसरतें दिन-रात पलीं,

मचलती उम्मीदें

कब क़दम मिलाकर चलीं? 


दुनिया में वफ़ा की आबरू है

साथ ख़ौफ़-ए-जफ़ा है,

ज़मीं-आसमां किसी बेआसरा से

क्यों इतना ख़फ़ा हैं?

© रवीन्द्र सिंह यादव

गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019

रावण


रावण का 


विस्तृत इतिहास ख़ूब पढ़ा, 

तीर चलाये मनभर 

प्रतीकात्मक प्रत्यंचा पर चढ़ा।  

बुराई पर अच्छाई की 

लक्षित / अलक्षित विजय का, 

अभियान दो क़दम भी आगे न बढ़ा!

वक़्त की माँग पर 

ठिठककर आत्मावलोकन किया, 

तो पाया पुरातन परतों में 

वर्चस्व का काला दाग़ कढ़ा।  


©रवीन्द्र सिंह यादव



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