अपने चमन को हमने सँवारा
बहाया पसीना सहेजे जज़्बात,
रौनकों को नौंचने आ गई
कौए और बाज़ की बारात।
पत्तियाँ हो रही थीं पल्लवित
फूलों पर आ रहा था निखार,
आ गये चरने-रौंदने बग़िया जानवर
धर-धर अपनी-अपनी बेरहम लात।
रखवाली के लिए बैठाया
एक अदद चौकीदार भी,
लुटेरे करते रहे उसकी जय-जयकार
आत्ममुग्ध समझ न सका पते की बात।
पूँजी का चरित्र
लाभ में निहित है,
नैतिकता की चर्चा
अब करते रहो दिन-रात।
© रवीन्द्र सिंह यादव