बुधवार, 23 दिसंबर 2020

सीढ़ी

 मढ़ा अब कहीं नहीं दिखता 

माटी की भीतों का अँधेरा कक्ष  

था बिना झरोखों का होता 

बिना दरवाज़ों के घरों में

आँगन में सूखते अनाज को 

भेड़-बकरियाँ खा जातीं 

माँ को एक उपाय सूझा 

तीन सूखीं-सीधीं  बल्लियाँ मँगवाईं 

एक बल्ली के एक-एक हाथ लंबे 

कुल्हाड़ी से टुकड़े करवाए 

दो बल्लियों को समानांतर रखा 

टुकड़ों को उनपर आड़ा रखकर 

ठोक दिया सिलबट्टे से 

कील के बड़े भाई कीले को 

एक -एक हाथ के अंतर से 

मढ़ा की भीत से सटाकर 

उपयुक्त कोण पर रखी गई सीढ़ी 

बचपन में सीढ़ी पर चढ़कर 

मढ़ा की छत पर पहुँचने का रोमांच 

ज़ेहन में  अब तक कुलाँचें भर रहा है 

नई पीढ़ी के लिए सीढ़ी के अनेक विकल्प मौजूद हैं 

आड़ी-तिरछी ऊर्ध्वगामी-अधोगामी 

सीधी-घुमावदार या फोल्डेबल सीढ़ी 

वास्तुशिल्प के अनुरूप आदि-आदि वजूद हैं 

सफलता की सीढ़ी 

स्वर्ग की सीढ़ी 

सभ्यता की सीढ़ी 

फ़ायर ब्रिगेड की सीढ़ी 

स्वचालित सीढ़ी 

बिजली विभाग की सीढ़ी

भवन-मज़दूर की सीढ़ी 

दुकानदार की सीढ़ी 

कुएँ-बावड़ी की सीढ़ी 

पहाड़ों में बने खेत सीढ़ी 

सड़क का अतिक्रमण करती सीढ़ी 

लताओं-बल्लरियों का सहारा सीढ़ी 

पर्वतारोहियों की सीढ़ी 

सैनिकों की सीढ़ी 

बाढ़ में बने सैनिक सीढ़ी

हवाई जहाज़ की सीढ़ी 

हेलीकॉप्टर से लटकती सीढ़ी

चोरों-आतंकवादियों की सीढ़ी

सब सीढ़ियों में श्रेष्ठ रही 

दिल में उतरनेवाली सीढ़ी 

ख़ुद में झाँकने को बननेवाली काल्पनिक सीढ़ी

जो बनी जान बचानेवाली सीढ़ी। 

 © रवीन्द्र सिंह यादव



रविवार, 20 दिसंबर 2020

किसान आंदोलन


रबी फ़सल कातिक में बो आए हो

हक माँगने दिल्ली की सीमा पर आए हो

अगहन गुज़र गया धीरे-धीरे 

सतह पा गए बीज सभी कारे-पीरे 

धरती ने ओढ़ा दुकूल हरियाला 

फ़सल माँगे पानी भर-भर नाला

बिजूका कब तक करे अकेला रखवाली 

चरे आवारा मवेशी जहाँ न किसान न माली

क्यारी-क्यारी की करुण अनुगूँज सुनो 

मिलजुलकर फ़सल खड़ी-बड़ी करो

श्रम-उत्पादन ख़ून-पसीना सब किसान के पाले में 

दाम मुनाफ़ा और तरक़्क़ी जा पहुँचे किसके पाले में?

पूस की रातें बड़ी कठिन हैं कृशकाय निरीह किसान कीं 

चर्चा अब फैली है गली-गली क्रूर-निष्ठुर सरकारी ईमान की

 एकता एक दिन करती है झुकने को मजबूर

मज़बूत इरादों के आगे होगा दंभ सत्ता का चूर

माघ मास में फिर फ़सलें माँगेंगीं पानी 

संभव है हो जाए क़ुदरत की मेहरबानी

पकने लग जाएँगीं फ़सलें फागुन आते-आते 

ले आना नया अनाज मंडी में चैत-बैसाख जाते-जाते

मत भूलना शहीद हुए जो साथी संघर्षों की राहों में 

वो सुबह भी आएगी जब ख़ुशियाँ झूलेंगीं अपनी बाहों में 

आंदोलन की राहें भले अब और कठिन हो जाएँगीं 

सत्ता के आगे ख़ुद्दार आँखें दया की भीख नहीं माँगेंगीं।

© रवीन्द्र सिंह यादव

शनिवार, 12 दिसंबर 2020

विरह वेदना

 नाविक नैया खेते-खेते 

तुम चले गए उस पार 

बाट तुम्हारी हेरे-हेरे 

थके नयन गए हार

बादल ठहरे होंगे कहीं 

कहे क्षितिज की रेखा 

संध्या का सफ़र शुरू होगा 

हो न सकेगा अनदेखा

नदी शांत है आ जाओ 

होगा मटमैला पानी

सांध्य-दीप साथ जलाना 

होगी परिपूर्ण कहानी। 

© रवीन्द्र सिंह यादव 

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