रविवार, 8 दिसंबर 2024

अभिभूत

बालू की भीत बनाने वालो 

अब मिट्टी की दीवार बना लो

संकट संमुख देख 

उन्मुख हो 

संघर्ष से विमुख हो गए हो 

अभिभूत शिथिल काया ले 

निर्मल नीरव निर्झर के मार्ग में 

हे शिल्पी! 

शिलाखंड पर कब से बैठे हो

उठो! मुक्ति-मार्ग संशय से मिलता तो

हर भटके राही को मंज़िल की क्यों फ़िक्र हो!

करो प्रहार हथौड़ा हाथ है 

सुगढ़ मूर्ति साकार हो! 

©रवीन्द्र सिंह यादव    



शब्दार्थ सम्मुख 

1. बालू = रेत, बालुका , Sand 

2. भीत = भित्ति , दीवार , Wall 

3. सम्मुख = सामने, आगे , समक्ष  

4. उन्मुख = ऊपर की ओर ताकता हुआ, उत्कंठा से देखता हुआ  

5. विमुख = मुँह फेरना, अलग होना, जिसके मुँह न हो, मुखरहित 

 6. अभिभूत = हारा हुआ , पराजित 

7. शिथिल = ढीला-ढाला, थका हुआ, 


 

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

फूल और काँटा

चित्र साभार: सुकांत कुमार 

SSJJ

एक हरी डाल पर 

फूल और काँटा 

करते रहे बसर

फूल खिला, इतराया 

अपने अनुपम सौंदर्य पर

महक ने दूर तक पसारे पर 

काँटा भी नुकीला हुआ,

सख़्त हुआ अभिमान से बेअसर 

उन्मादी हवा बही 

साएँ-साएँ सरसर-सरसर

काँटा हुआ पंखुड़ी के 

आरपार एक दोपहर 

धूप-बारिश की मार 

हुई धुआँधार गाँव-शहर 

तितली-भँवरे,कीट-पतंगे, 

रसिक कविवर 

गाते गुणगान फूल का 

मन भर कर

काँटा तो चुभन की 

पीड़ा देता चुभकर 

जिस फूल की रक्षा में 

काँटा झेलता रहा आलोचना जीभर 

वही एक दिन 

लगा किसी के हाथ 

और मुरझाया सेज पर सजकर

अब काँटा जी रहा 

एकाकी जीवन मन मार कर 

नियति-चक्र में 

फूल-काँटे साथ रहते 

विपरीत स्वभाव होकर

फूल-काँटे पनपते रहेंगे 

मौसमों की मार सहकर। 

 ©रवीन्द्र सिंह यादव    


रविवार, 14 जुलाई 2024

छल

ईवीएम के समाचार पढ़कर 

मुझे स्मरण हो आते हैं शकुनि के प्रबल पासे

वे सत्ता-संपत्ति  के नहीं बल्कि थे रक्त के प्यासे

द्रौपदी द्वारा दुर्योधन का उपहास 

बन गई गले की चुभनभरी फाँस   

शक्ति,साधन,मर्यादा,दर्प और ऐश्वर्य 

शकुनि के पासों के आगे नत-मस्तक

छल बल है निरपराध के लिए घातक  

नियम पालन की नैतिकता से बँधे रहे महारथी चुपचाप  

स्त्री-गरिमा होती तार-तार देखते रहे शीश झुकाए क्रूरता का वीभत्स नाच

इतिहास का असहज सत्य 

तबाही के उपरांत आ खड़ा होता है 

कहता है-

छल आश्रय लेता है 

सहसा अनैतिकता के भंडार में! 

 ©रवीन्द्र सिंह यादव 


रविवार, 16 जून 2024

तपिश और पेड़

चित्र: महेन्द्र सिंह 


 गमलों में पेड़ लगाकर 

आत्ममुग्ध होता समाज 

व्यथित है 

सूरज की प्रचंड तपिश से

हाँ, बदलेगा वातावरण 

बड़ी होती इस कोशिश से 


पेड़ की जड़ 

खींचती जल भूतल से 

पहुँचाती आँतरिक वाहिनियों के ज़रिये 

पत्ती के स्टोमेटा तक 

वाष्पोत्सर्जन वातावरण को देता ठंडक

छाया में आती राहत की ठसक

 

जो सूख गया या काटा गया पेड़ 

तो देखा गया जलते हुए 

सर्दी के अलाव में 

या घर की शोभा बनते हुए 


पेड़ तो स्वयं उगते हैं 

सजते-सँवरते हैं वन-उपवन होकर 

कुदृष्टि आदमी की उजाड़ती है वृक्ष 

अति भौतिकता का दास होकर

उजड़ते वन बसती बस्तियाँ 

बढ़ता वातावरण का तापमान 

जीवन के लिए ख़तरा


वृक्षों को जबरन मुक्ति देता आदमी 

कभी झाँक लेगा अपने भीतर 

रोते-सिसकते मिलेंगे 

चिड़िया,कोयल,मोर,बटेर,तीतर। 

 ©रवीन्द्र सिंह यादव

  


बुधवार, 29 मई 2024

नदी का स्वभाव

चित्र: महेन्द्र सिंह 

कल-कल करती 

निर्मल नदी को देखो

गतिमान है मुहाने की ओर 

सूरज की तपिश 

संलग्न है 

नदी की काया को 

छरहरा बनाने की ओर 

नदी आशांवित होती है 

पहुँचने मुहाने तक 

सागर में मिलने हेतु  

आगे मिल जाएँगीं 

समा जाएँगीं 

कुछ और छोटी-छोटी नदियाँ

उसकी जलराशि और सौंदर्य में इज़ाफ़ा करने  

नदी उनका 

तिरस्कार नहीं करती है 

आह्लादित होती है 

संगम और समंवय के साथ

मनुष्य,पशु-पक्षियों,पेड़-पौधों का 

सुकून में बदलता है 

प्यास का एहसास

देखकर बहती निर्मल नदी

लगे अंकुश मानवीय महत्वाकांक्षाओं  पर 

तो बहती रहे नदी 

अविरल,अविचल,अविकल,अनवरत 

सदी-दर-सदी कल-कल छल-छल।   

©रवीन्द्र सिंह यादव

बुधवार, 8 मई 2024

सोशल मीडिया

अभिव्यक्ति को विस्तार देने 

आया सोशल मीडिया,

निजता का अतिक्रमण करने 

आया सोशल मीडिया

धंधेबाज़ों को धंधा 

लाया सोशल मीडिया 

चरित्र-हत्या का माध्यम 

बना सोशल मीडिया 

ज्ञान,विमर्श और सूचना का 

अंबार लाया सोशल मीडिया 

छल,झूठ,धमकी,बदज़बानी

बलात्कार की धमकी और दम्भ को 

विस्तार देता सोशल मीडिया

स्त्रियों के लिए असुरक्षित बना 

सोशल मीडिया 

सोशल अर्थात सामाजिक 

सामाजिक माध्यम असामाजिक क्यों हो गया है? 

क्योंकि अब यह सत्ता से साँठगाँठ कर चुका है

कौन गाली लिख रहा है

कौन धमकी दे रहा है 

कौन नफ़रत और झूठ फैला रहा है

कौन क़ानून तोड़ रहा है 

कौन सामाजिक सद्भाव बिगाड़ रहा है  

सब जानती है सोशल मीडिया कंपनी 

धंधे के लिए इसे सब मंज़ूर है।

©रवीन्द्र सिंह यादव 


    

बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

मूल्यविहीन जीवन

चित्र: महेन्द्र सिंह 


अहंकारी क्षुद्रताएँ 

कितनी वाचाल हो गई हैं 

नैतिकता को 

रसातल में ठेले जा रही हैं

 मूल्यविहीन जीवन जीने को 

उत्सुक होता समाज 

अपने लिए काँटे बो रहा है

अथवा फूल

यह तो समय देखेगा 

पीढ़ियों को कष्ट भोगते हुए

मूल्यविहीनता का क़र्ज़ उतारते हुए।  

©रवीन्द्र सिंह यादव

शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

सर्दी

 

चित्र:महेन्द्र सिंह 

सर्दी तुम हो बलवान 

कल-कल करती नदी का प्रवाह 

रोकने भर की है तुम में जान

जम जाती है बहती नदी 

बर्फ़ीली हवाओं को तीखा बनाने 

आती हो निरीह को सहना सिखाने  

तुम जब कोहरे के पंख लेकर 

उतरती हो धरा पर 

दृष्टि क्षमता घट जाती है जीव की

चिड़िया भी उड़ नहीं पाती पर पसार कर   

अदृश्य हो जाते हैं भानु,शशि और सितारे

भौतिक जीवन चलता है तकनीक के सहारे 

एक ह्रदय है 

धड़-धड़ धड़कता रहता है जीवनभर अनवरत 

जमने नहीं देता धमनियों-शिराओं में बहता रक्त

इसके भी अपने मौसम हैं 

अंगों के सह-अस्तित्त्व को सहेजे  

कुछ मनचीते 

कुछ बोझिल-से!    

©रवीन्द्र सिंह यादव




शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

भेड़ की ऊन

चित्र: महेन्द्र सिंह 

मासूम भेड़ की ऊन 

आधुनिक मशीनों से 

उतारी जा रही है

भेड़ की असहमति 

ठुकराई जा रही है

ज़बरन छीना जा रहा है   

सौम्य कोमल क़ुदरती कवच

है कैसा इंसानी बुद्धिमत्ता का सच   

तौहीन सहते-सहते 

गुज़ारेगी ठंड का मौसम 

कोसते काँपते-ठिठुरते हुए

कोई लुत्फ़ उठा रहा होगा

सर्दी के मौसम में इच्छित उष्णता का  

ऊनी रज़ाई ओढ़ते हुए!

 ©रवीन्द्र सिंह यादव

 

रविवार, 24 दिसंबर 2023

बादल को बरस जाना है

चित्र: महेन्द्र सिंह 

दो गर्वोन्नत अहंकारी बादल

बढ़ा रहे थे असमय हलचल 

मैंने भी देखा उन्हें

नभ में  

घुमड़ते-इतराते हुए

डराते-धमकाते हुए

आपस में टकराए  

बरस गए

बहकर आ गए 

मेरे पाँव तले

नदी की ओर बह चले

लंबा सफ़र तय करेंगे 

सागर में जा मिलेंगे।  

 ©रवीन्द्र सिंह यादव      

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