रविवार, 26 फ़रवरी 2023

घोड़े की नाल

तुम्हें घोड़े को 

रथ में जोतना था 

तुम्हें उससे 

ताँगा खिंचवाना था

तुम्हें उस पर सवार हो 

युद्ध लड़ने  थे 

तुम्हें उस पर सवार हो 

पहाड़ चढ़ने थे 

तुम्हारे अपने शौक 

और विवशताएँ थीं 

घोड़े की अपनी 

क्या-क्या लालसाएँ थीं... 

ककरीली-पथरीली ज़मीन पर 

तेज़ रफ़्तार से दौड़ते-दौड़ते 

उसके खुर लहूलुहान न हों

तुम्हारे लक्ष्य में व्यवधान न हो  

तो तुमने ठोक दीं

या ठुकवा दीं  

लोहे की सख़्त नालें 

घोड़े के खुरों में! 

दर्दनाक!

और तुम ख़ुद को 

सभ्य कहते हो?

संवेदनशील होने का 

सुसज्जित ढोंग करते हो!

शर्मनाक!

© रवीन्द्र सिंह यादव 


सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

बसंत तुम फिर चले जाओगे



शिशिर ने बसंत को सौंपी थीं  

मौसम की मासूम धड़कनें

अवनि-अंबर में छट गईं 

कोहरे की क़ाएम अड़चनें 

फाल्गुन, चैत्र महीने 

खेत-खलिहान, किसान 

महकती मोहक बयार 

हृदय में रचने लगे सृजन 

गेहूँ-जौ की सुनहरी बालियाँ 

गीत गातीं विहंग-वृंद बोलियाँ

आतुर हुए रंग-बिरंगे फूल-पत्तियाँ 

सजे सरसों के खेत और क्यारियाँ

गुनगुनी धूप समाई  

पुलकित-व्यथित अंतरमन की गहराइयों में 

कोकिला की कोमल कूक 

गूँजी सुदूर सघन अमराइयों में 

गीष्म की प्रताड़ना और पतझड़ का 

कल्पित भय दिखाकर 

बसंत तुम इस बार फिर चले जाओगे...

आस है कि तुम फिर चले आओगे।  

© रवीन्द्र सिंह यादव  


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