रिक्शेवालों को
आलीशान बाज़ारों से
दूर
कर दिया गया है
झीने वस्त्र को
लौह-तार से सिया गया है
बहाना
बड़ा ख़ूबसूरत है
वे
पैदल चलनेवालों का भी
स्थान
घेर लेते हैं
सच तो यह है
कि
वे
अवरोधों से आक्रांत ग़रीब
मख़मल में टाट का पैबंद नज़र आते हैं
मशीनें
मानवश्रम का
मान घटाती ही चली जा रही हैं
रोज़गार के अवसरों पर
कुटिल कैंचियाँ
चलती ही चली जा रही हैं
भव्यता का
क़ाइल हुआ समाज
वैचारिक दरिद्रता ओढ़ रहा है
संवेदना को
परे रख
ख़ुद को
रोबॉटिक जीवन की ओर मोड़ रहा है।
© रवीन्द्र सिंह यादव