सर्दी तुम हो बलवान
कल-कल करती नदी का प्रवाह
रोकने भर की है तुम में जान
जम जाती है बहती नदी
बर्फ़ीली हवाओं को तीखा बनाने
आती हो निरीह को सहना सिखाने
तुम जब कोहरे के पंख लेकर
उतरती हो धरा पर
दृष्टि क्षमता घट जाती है जीव की
चिड़िया भी उड़ नहीं पाती पर पसार कर
अदृश्य हो जाते हैं भानु,शशि और सितारे
भौतिक जीवन चलता है तकनीक के सहारे
एक ह्रदय है
धड़-धड़ धड़कता रहता है जीवनभर अनवरत
जमने नहीं देता धमनियों-शिराओं में बहता रक्त
इसके भी अपने मौसम हैं
अंगों के सह-अस्तित्त्व को सहेजे
कुछ मनचीते
कुछ बोझिल-से!
©रवीन्द्र सिंह यादव
Bahut sundar👌🏻👏👏👏👏
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर प्रणाम 🙏
जवाब देंहटाएंवाह!बहुत सुंदर 👌
कुछ मनचीते
जवाब देंहटाएंकुछ बोझिल-से...।
मन को छूती अत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २३ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसर्दी तुम हो बलवान
जवाब देंहटाएंकल-कल करती नदी का प्रवाह
रोकने भर की है तुम में जान
जम जाती है बहती नदी
बर्फ़ीली हवाओं को तीखा बनाने
आती हो निरीह को सहना सिखाने
सही कहा निरीह को सहना ना आये तो जी ही कहाँ पायेगा... मनोबल बढ़ा कर ठंड ही नहीं भूख प्यास के साथ दुत्कार फटकार भी सहना आ जाता है
बहुत ही भावपूर्ण लाजवाब सृजन ।
बहुत सुंदर सृजन।
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