जानते हो?
ओखली और मूसल
गाँव में घर-घर हुआ करते थे
वह रिदम
आज भी
गूँजती रहती है
मेरे भीतर
एक ही ओखली में
अम्मा-चाची
अपने-अपने
मूसल से धान कूटती थीं
साथ-साथ...
एक मूसल नीचे आता
तो दूसरा ऊपर जाता
कोई आपस में न टकराता
बीच-बीच में
ओखली में
हाथ का सरपट करतब
अनकुटे धान को
मूसल की चोटों के केन्द्र में लाता
मूसल-प्रहार से
उत्पन्न ध्वनि
कर्कश नहीं
संगीतमय हो जाती
मूसल की धमक
चूड़ियों की खनक
सुरीला राग बन
परिवेश में एकाकार हो जाती
देखते-देखते
धान की रूह फ़ना हो जाती
चावल अलग
और भूसी विलग हो जाती
चावल के दाने
चिड़िया के बच्चों के गले उतरना
आसान हो जाते
पंसेरी-दो-पंसेरी धान कूटकर
मूसल शांत हो जाते
सुकोमल कोंपलों को
छूकर आती बसंती बयार
स्नेह का स्पर्श लिए
डोलती आ जाती घर-द्वार
तब...
मूसल चलानेवाले पसीने में भीगे हाथ
निर्विकल्प पावन हो जाते
जब भूख और स्वाद
घुल-मिल तृप्ति हो जाते
कमाल का सामंजस्य था
तारतम्य और अभ्यास था
भावनाओं की उर्वरा खाद
बढ़ाती जीवट का स्वाद
हल्की हठीली
हँसी-ठिठोली
हास-परिहास था
बड़ी गृहस्थी
और संयुक्त परिवार के
ताने-बाने को
बिना टकराहट
संजोए रखने का
विराट भाव सहअस्तित्व का
परिवार से ग़ाएब क्या हुआ
तो दुनिया भी
उसे अनुभव करना
भूल गई
अपने-पराये के भेद में
निपुण हो गई
ख़ाली बासनों-सी
बजने लग गई!
© रवीन्द्र सिंह यादव
शब्दार्थ
पंसेरी = पाँच सेर वज़्न (एक सेर = 933 ग्राम )
विलग = पृथक, अलग, जोड़ा फूटना, साथ छूटना, विभक्त,असंबद्ध