शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

ओखली और मूसल

 

जानते हो?

ओखली और मूसल 

गाँव में घर-घर हुआ करते थे

वह रिदम 

आज भी 

गूँजती रहती है 

मेरे भीतर 

एक ही ओखली में 

अम्मा-चाची 

अपने-अपने 

मूसल से धान कूटती थीं 

साथ-साथ...  

एक मूसल नीचे आता 

तो दूसरा ऊपर जाता

कोई आपस में न टकराता  

बीच-बीच में 

ओखली में 

हाथ का सरपट करतब 

अनकुटे धान को 

मूसल की चोटों के केन्द्र में लाता 

मूसल-प्रहार से 

उत्पन्न ध्वनि 

कर्कश नहीं 

संगीतमय हो जाती

मूसल की धमक 

चूड़ियों की खनक

सुरीला राग बन 

परिवेश में एकाकार हो जाती  

देखते-देखते 

धान की रूह फ़ना हो जाती

चावल अलग 

और भूसी विलग हो जाती  

चावल के दाने  

चिड़िया के बच्चों के गले उतरना  

आसान हो जाते

पंसेरी-दो-पंसेरी धान कूटकर 

मूसल शांत हो जाते

सुकोमल कोंपलों को 

छूकर आती बसंती बयार 

स्नेह का स्पर्श लिए 

डोलती आ जाती घर-द्वार 

तब... 

मूसल चलानेवाले पसीने में भीगे हाथ 

निर्विकल्प पावन हो जाते 

जब भूख और स्वाद 

घुल-मिल तृप्ति हो जाते     

कमाल का सामंजस्य था

तारतम्य और अभ्यास था

भावनाओं की उर्वरा खाद

बढ़ाती जीवट का स्वाद  

हल्की हठीली 

हँसी-ठिठोली 

हास-परिहास था 

बड़ी गृहस्थी 

और संयुक्त परिवार के 

ताने-बाने को 

बिना टकराहट 

संजोए रखने का 

विराट भाव सहअस्तित्व का 

परिवार से ग़ाएब क्या हुआ 

तो दुनिया भी 

उसे अनुभव करना 

भूल गई

अपने-पराये के भेद में 

निपुण हो गई

ख़ाली बासनों-सी 

बजने लग गई!   

© रवीन्द्र सिंह यादव   


शब्दार्थ 

पंसेरी = पाँच सेर वज़्न (एक सेर = 933 ग्राम ) 

विलग = पृथक, अलग, जोड़ा फूटना, साथ छूटना, विभक्त,असंबद्ध    

  

16 टिप्‍पणियां:

  1. ओखली और मूसल की यादों को ताज़ी कर गई आपकी ये प्रस्तुति

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  2. बहुत दर्द भरी कविता !
    सहज और निश्छल ग्रामीण जीवन आज मशीनों के शोर में तिरोहित हो गया है.

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  3. बहुत सुन्दर रविन्द्र भाई, एक दम स्टीक याद बचपन के जीवन की सुबह हाथ की आटा चक्की की घरघराहट और दोपहर बाद ओखल में बजते मूसल , बधाई आपकी भाव प्रवीणता

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  5. ओखली-मूसल ने गाँव की याद दिला दी। इसकी धुन सुनना आज भी प्रिय है, पर अब यह सब हमारे जीवन से ओझल हो गया है। सुन्दर रचना, बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  6. आपकी इस प्रविष्टि का लिंक चर्चा मंच पर भी लगाया गया है|
    कृपया कल 16 फरवरी के चर्चामंच का अवलोकन करें और अपने कमैंट्स से धन्य करें!

    जवाब देंहटाएं
  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    उत्तर
    1. बहुत ही खूबसूरत रचना।
      ओखली तो आज भी हमारे गांव में उपस्थित है और इसका प्रयोग धान कूटने में बहुत कम ही होता है पर लड़के की शादी इसके बिना नहीं होता! इस की अत्यंत आवश्यकता होती है!क्योंकि रसम होती है कि धान से चावल को कूट कर निकाले पर धान टूटे ना!

      हटाएं
  8. तब...
    मूसल चलानेवाले हाथ
    निर्विकल्प पावन हो जाते
    जब भूख और स्वाद
    घुल-मिल तृप्ति हो जाते
    कमाल का सामंजस्य था
    तारतम्य और अभ्यास था
    भावनाओं की उर्वरा खाद
    बढ़ाती जीवट का स्वाद
    हृदयस्पर्शी सृजन ।

    जवाब देंहटाएं
  9. गांव,घर की सौंधी सुगंध लिए पारम्परिक प्रतीकों से सजी,कमाल की रचना
    बधाई

    जवाब देंहटाएं
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  11. ओंखली और मूसल के माध्यम से संयुक्त परिवारों का सामंजस्य आपने प्रतीकात्मक शैली में बहुत सुंदर से समझाया है।
    बहुत सुंदर सृजन बदलती दिनचर्या,छूटते गांव ,टूटते संयुक्त परिवार, संकीर्ण होते सदभाव सब पर मन की दबी हुई पीड़ा को उकेरा है आपने भाई रविन्द्र जी।
    सुंदर सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  12. एक मूसल नीचे आता

    तो दूसरा ऊपर जाता

    कोई आपस में न टकराता

    बीच-बीच में

    ओखली में

    हाथ का सरपट करतब

    अनकुटे धान को

    मूसल की चोटों के केन्द्र में लाता
    सच कहा आपने वाकई इनके मूसल आपस में न टकराएंर संयुक्त परिवार भीबिना मतभेद बढ़ते रहे
    अब वो दिन कहाँऔर वैसा सामजस्य भी कहाँ...
    पुराने दिनों की यादें ताजा करती बहुत ही लाजवाब भावाभिव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं

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