चीख़ती चलती चली गई
वह किशोरी
माँगती हुई मदद दर-दर दर्द से कराहती
पैदल भागती आठ किलोमीटर
उज्जैन का वह पथ
थी ख़ून से लथपथ
वह बलात्कार पीड़िता
हाय! फुक गया है
समाज की संवेदना का मीटर
एक नेक युवा पुजारी ने
अनेक किंतु-परंतुओं को
विराम देते हुए
पीड़िता की मदद की
खींची लकीर इंसानियत की
गुफाओं से निकलकर
भव्य अट्टालिकाओं में आ बसा
आधुनिक स्वार्थी समाज
संवेदना को मारकर
आज कितना सभ्य हुआ है?
सामाजिक मूल्यों का कैनवास
कितना भव्य हुआ है?
अफ़सोस!
हमारी गुफा में अंधकार
अब और गहरा गया है
हमारे अंतस में घृणा को
किरायेदार बनाकर कोई ठहरा गया है!
©रवीन्द्र सिंह यादव