साहित्य समाज का आईना है। भाव, विचार, दृष्टिकोण और अनुभूति का आतंरिक स्पर्श लोकदृष्टि के सर्जक हैं। यह सर्जना मानव मन को प्रभावित करती है और हमें संवेदना के शिखर की ओर ले जाती है। ज़माने की रफ़्तार के साथ ताल-सुर मिलाने का एक प्रयास आज (28-10-2016) अपनी यात्रा आरम्भ करता है...Copyright © रवीन्द्र सिंह यादव All Rights Reserved. Strict No Copy Policy. For Permission contact.
गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017
रविवार, 12 फ़रवरी 2017
ये कहाँ से आ गयी बहार है
ये कहाँ से
आ गयी बहार है ,
बंद तो
मेरी गली का द्वार है। ....(1)
ख़्वाहिशें टकरा के
चूर हो गयीं,
हसरतों का दर्द
अभी उधार है।
बंद तो
मेरी गली का द्वार है।....(2)
नफ़रतों के तीर
छलनी कर गए जिगर ,
वक़्त लाएगा मरहम
जिसका इंतज़ार है।
बंद तो
मेरी गली का द्वार है।.....(3)
बदल गए हैं
इश्क़ के अंदाज़ अब,
उल्फ़तों का
सज गया बाज़ार है।
बंद तो
मेरी गली का द्वार है।....(4)
अरमान बिखर जाएँ तो
संभाल लेना दिल,
छीनता है एक
वो देता हज़ार है।
बंद तो
मेरी गली का द्वार है।.....(5)
टूटते हैं रोज़-रोज़
तारे आसमान में ,
"रवीन्द्र " को तो
ज़िन्दगी से प्यार है।
बंद तो
मेरी गली का द्वार है।...(6)
@रवीन्द्र सिंह यादव
इस रचना का यू ट्यूब विडियो लिंक- https://youtu.be/6n-Og0O8cTE
सोमवार, 6 फ़रवरी 2017
धीरे - धीरे ज़ख़्म सारे
धीरे - धीरे ज़ख़्म सारे
अब भरने को आ गए ,
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
ज़िन्दगी को जब ज़रूरत
उजियारे दिन की आ पड़ी,
लपलपायीं बिजलियाँ
गरजकर काले बादल छा गए।
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
बाँसुरी की धुन पे थिरका
बृज के साथ सारा ज़माना,
श्याम जब राधा से मिलने
यमुना तट पर आ गए।
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
आज फिर आँगन में मेरे
नन्हीं कलियाँ खिल रहीं,
गीत फिर इनको सुनाओ
जो दादी नाना गा गए।
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
क्या मनाएं जश्न हम
ज़िन्दगी की जीत का,
बाँटने को थीं जो चीज़ें
हम उन्हीं को खा गए।
एक बेचारा दाग़ -ए -दिल है
जिसको ग़म ही भा गए।
इस रचना को सस्वर सुनने के लिए लिंक - https://youtu.be/QdAzRuiZa8
बुधवार, 1 फ़रवरी 2017
आया ऋतुराज बसंत
शिशिर का प्रकोप ढलान पर
आया ऋतुराज बसंत दालान पर
खेत-खलिहान / बाग़-बग़ीचे
पीलिमा-लालिमा / हरीतिमा का सुरभित आभामंडल,
आहिस्ता-आहिस्ता कपड़े सुखाती गुनगुनी धूप
पुष्प-पत्तों दूब-नलिका ने पहने ओस के कुंडल।
सरसों के पीले फूल
गेंहूँ-जौ की नवोदित बालियाँ / दहकते ढाक-पलाश,
आम्र-मंजरियों के सुनहले गर्वीले गुच्छ
आम्र-मंजरियों के सुनहले गर्वीले गुच्छ
सृष्टि का सरस सामीप्य साकार सौंदर्य
मोहक हो पूरी करता मन की तलाश।
पक्षियों का कर्णप्रिय कलरव,
मानो गा रहा कोई
रसमय राग भैरव।
आ गया बसंत
अल्हड़ मन पर छा गया बसंत,
प्रकृति के प्रवाह में
होता नहीं कोमा या हलंत।
उत्सव मनाओ क़ुदरती मेलों में
जीओ सजीव सार्थक बसंत,
पोस्टर, कलेंडर, फिल्मांकन, अंतरजाल में
हम ढूँढ़ते हैं आभासी अनमना निर्जीव बसंत।
@रवीन्द्र सिंह यादव
रवीन्द्र सिंह यादव
वागीश्वरी जयंती
जय हो वीणावादिनी
जय हो ज्ञानदायिनी
विद्या ,बुद्धि ,ज्ञान की देवी
करो मेधा प्रखर वाग्देवी।
माघ मास शुक्लपक्ष पंचमी
वागीश्वरी जयंती
पूजा-आराधना शाश्वत ज्ञान हेतु
शीश नमन्ति !
हे माँ !
उन मस्तिष्क का विवेक
जाग्रत रखना
जिनकी अँगुलियों को
भोले जनमानस ने
परमाणु - बटन दबाने का अधिकार सौंप दिया है ,
उन स्वार्थ की परतों को उधेड़ देना
जिन्होंने मानवता की पीठ में ख़ंजर घौंप दिया है।
उन मनीषियों की प्रतिभा प्रचंड प्रखर करना
जो स्वयं को जलाकर
रोशनी के हेतु हैं ,
कल और आज के
धवल - सबल सेतु हैं।
उन दीन -दुखी , निबल, जर्जर को संबल देना
जो मूल्यों की धरोहर सहेजे हैं,
वक़्त के ज़ुल्म-ओ-सितम सहकर
निष्ठा को आज भी लगाए कलेजे हैं।
उन दिमाग़ों में स्त्री-गरिमा की ज्योति प्रदीप्त करना
जो भोग-उपभोग का मानस लिए भटकते हैं,
असहाय समाज की आँख में
यदाकदा नहीं अब रोज़ खटकते हैं।
हे माँ !
भटके हुए जीव - जगत को
सुरमयी गीत सुनाकर उजियारा पथ दिखा देना ,
जीवन- संगीत का
दिव्य बसंती -राग सिखा देना।
@ रवीन्द्र सिंह यादव
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
विशिष्ट पोस्ट
अभिभूत
बालू की भीत बनाने वालो अब मिट्टी की दीवार बना लो संकट संमुख देख उन्मुख हो संघर्ष से विमुख हो गए हो अभिभूत शिथिल काया ले निर्मल नीरव निर...
-
मानक हिंदी और आम बोलचाल की हिंदी में हम अक्सर लोगों को स्त्रीलिंग - पुल्लिंग संबंधी त्रुटियाँ करते हुए ...
-
चित्र:महेन्द्र सिंह सर्दी तुम हो बलवान कल-कल करती नदी का प्रवाह रोकने भर की है तुम में जान जम जाती है बहती नदी बर्फ़ीली हवाओं को तीखा ब...
-
बीते वक़्त की एक मौज लौट आयी, आपकी हथेलियों पर रची हिना फिर खिलखिलायी। मेरे हाथ पर अपनी हथेली रखकर दिखाये थे हिना के ख़...