मैं अपनी कश्ती पार लाकर,
समुंदरों को दिखा रहा हूँ।
जीवन के ये गीत रचे जो,
मज़लूमों को सुना रहा हूँ।
चला हूँ जब से कँटीले पथ पर,
पाँव के छाले छुपा रहा हूँ।
उतर गया हूँ सागर तल में,
प्यार के मोती उठा रहा हूँ।
अहंकार के दावानल में,
प्रेम की बूँदें गिरा रहा हूँ।
जहाँ बुझ गया चाँद फ़लक का,
चराग़ होना सिखा रहा हूँ।
इंसानियत के कारवाँ में,
जुड़ो अभी मैं बुला रहा हूँ।
उदास बैठी सूनी घाटी में,
उम्मीद के फूल खिला रहा हूँ।
अंधकार से डरना छोड़ो,
मैं एक दीपक जला रहा हूँ।
© रवीन्द्र सिंह यादव