मूल्य
संवेदना
संस्कार
आशाएँ
आकांक्षाएँ
एकत्र होती हैं
एक सख़्त साँचे में
ढलता है
एक व्यक्तित्त्व
उम्मीदों के बिना भी
जीते जाने के लिए
दुनिया के ज़ख़्मों पर
नेह का लेप लगाने के लिए
यह सहज साँचा
हमने अब खो दिया है
भौतिकता के अंबार में
बहुत नीचे दब गया है।
©रवीन्द्र सिंह यादव
हजूर गजब कहे हैं | वकील साहिब नाराज हो सकते हैं :) क्योंकि सबसे मजबूत बना कर साँचा तोड़ देते हैं भगवान जी |
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम सर।
जवाब देंहटाएंआपकी व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी के आयाम बड़े व्यापक हैं।
सादर आभार उत्साहवर्धन हेतु।
कितनी गहरी बात कही है आपने आपकी कविता के माध्यम से कि संवेदनाएँ और संस्कार ही किसी इंसान का असली व्यक्तित्व गढ़ते हैं। अब लोग उम्मीदों और आकांक्षाओं में उलझकर इंसानियत को पीछे छोड़ रहे हैं। मुझे लगता है, ये कविता जैसे हमें याद दिलाती है कि असली ताकत भीतर की नेकी और संवेदना में है, न कि बाहरी दिखावे में।
जवाब देंहटाएंसाँचा बंधन है जिसके स्वरूप में ढलकर सहजता से रहना आसान नहीं शायद...
जवाब देंहटाएंविचारणीय अभिव्यक्ति।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर 😍
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