शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

जिया जो दूसरों के सपनों पर


मत टिकाओ 
उम्मीद को अपनी 
किसी लफ़्फ़ाज़ के सहारे, 
नहीं  तो डूब जायेगी 
नैया एक दिन 
देखते रह जाओगे किनारे। 


दरारें दिख रहीं हैं 
दूर से मुझको 
संयम के बाँध 
 हैं अब फूटने वाले ,
जायेंगे टूट जब एक दिन 
कच्चे विश्वास के धागे, 
कहेगा कौन तुमको 
कि हो तुम हमारे। 


हो बेहतरी की बात 
या ख़ुशियों भरे दिन हों, 
हलक़ सूखा है 
अब तो इंतज़ार में 
 लगते आज-कल अपने 
ज्यों रौशनी बिन हों, 
देखता हूँ रोज़-रोज़ 
लुटते हुए सपने 
बेहरे हुए को 
कोई कब तक पुकारे। 


थाम लो दामन 
वक़्त की चुनौती का  
राह अपनी बना डालो, 
खोखले आश्वासन 
होते नहीं ज़ख़्म का मरहम 
बुझते चराग़ में 
ज़रा-सा सब्र का 
तेल फिर डालो, 
जिया जो 
दूसरों के सपनों पर 
ज़िन्दगी में झेलता 
ज़िल्लत वही सांझ-सकारे। 

# रवीन्द्र सिंह यादव 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-01-2020) को   "तान वीणा की माता सुना दीजिए"  (चर्चा अंक - 3595)    पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

    जवाब देंहटाएं

  2. बहुत खूब ,लाज़बाब सृजन सर, सादर नमन आपको

    जवाब देंहटाएं
  3. शानदार प्रस्तुति। सार्थक संदेश देती सुंदर रचना।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

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