आओ अब अतीत में झाँकें...
आधुनिकता ने ज़मीर
क्षत-विक्षत कर डाला है.
भौतिकता के प्रति
यह कैसी अभेद्य निष्ठा
दर्पण पर धूल
छतों पर मकड़ी के जाले
कृत्रिम फूल-पत्तियों में
जीवन के प्रवाह का अन्वेषण.
सपने संगठित हो रहे
विखंडित मूल्यों की नींव पर
भूमि-व्योम में
कलुषित विचारों का विनिमय
मानवता के समक्ष अबूझ पहेली.
झूठा आदर्श मथ रहा
मानस हमारा
त्रासद है
मन का बुझकर विराम लेना.
हो रहे विलुप्त
दैनिक जीवन से
सामाजिक मूल्य
प्रेम, करुणा, दया, सहयोग, चारित्रिक-शुचिता
दूसरों की परवाह में प्रसन्नता
व्यक्ति से कोसों आगे चल रहे हैं .
आओ ठिठककर खोलें
बीते कल का कोई झरोखा
देखें सौंदर्यबोध की व्यग्रता से
कितनी दूर आ गये हैं हम....!
पदार्थवाद में
कितना धंस चुके हैं हम.....!!
#रवीन्द्र सिंह यादव
#रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (09-10-2019) को "विजय का पर्व" (चर्चा अंक- 3483) पर भी होगी। --
जवाब देंहटाएंसूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--विजयादशमी कीहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आओ ठिठककर खोलें
जवाब देंहटाएंबीते कल का कोई झरोखा
देखें सौंदर्यबोध की व्यग्रता से
कितनी दूर आ गये हैं हम....!
बहुत सार्थक चिन्तन ।
बिलकुल सही कहा आपने ,"कहाँ थे और कहाँ आ गए "एक बार तो मंथन करना जरुरी हो गया हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर और सटीक रचना ,सादर नमन
समसामयिक सार्थक रचना आदरणीय
जवाब देंहटाएंआपने सत्य कहा 'भूमि-व्योम "में कलुषित विचारों का विनिमय बेहतरीन भाव,सादर
गहन मंथन करवाती रचना । विचारणीय ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंवर्तमान समय के सच को व्यक्त करती
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना
बधाई
सही कहा अनुज आपने ,पदार्थ वाद मे घंस गए है हम ..किसी और की खुशी से कोई मतलब ही नही रहा ।
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