आवारा बादल हूँ मैं
अपने झुंड से बिछड़ गया हूँ मैं
भटकन निरुद्देश्य न हो
इस उलझन में सिमट गया हूँ मैं।
सूरज की तपिश से बना हूँ मैं
धनात्मक हूँ या ऋणात्मक हूँ मैं
इस ज्ञान से अनभिज्ञ हूँ मैं
बादलों के ध्रुवीकरण
और टकराव की नियति से
छिटक गया हूँ मैं
छिटक गया हूँ मैं
बिजली और गड़गड़ाहट से
बिदक गया हूँ मैं।
बिदक गया हूँ मैं।
सीमेंट-सरिया के जंगल से दूर
उस बस्ती में बरसना चाहता हूँ मैं
जहाँ...
जल की आस में
दीनू का खेत सूखा है
रोटी के इंतज़ार में
नन्हीं मुनिया का पेट भूखा है
लहलहाती फ़सलों को
निहारने सुखिया की आँखें पथरायीं हैं
सीमा पर डटे पिया की बाट जोहती
सजनी की निगाहें उदास दर्पण से टकरायीं हैं
गलियों में बहते मटमैले पानी में
बचपन छप-छप करने को आकुल है
अल्हड़ गोरी हमउम्र सखियों संग
झूले पर गीत गाने को व्याकुल है।
माटी की भीनीं-सौंधी गंध
हवा में बिखर जायेगी
हरियाली की चादर ओढ़
पुलकित बसुधा लजायेगी
नफ़रत बहेगी नालों में
सद्भाव उगेंगे ख़यालों में।
उगे हैं बंध्या-धरती पर शूल जहाँ
पुष्पित होंगे रंग-बिरंगे फूल वहाँ
सूखे कंठ जब तर-ब-तर होंगे
अनंत आशीष मेरे सर होंगे।
यह दृश्य देख
बादल होने पर इतराऊँगा
काल-चक्र ने चाहा तो
फिर बरसने आऊँगा........!!!
#रवीन्द्र सिंह यादव
#रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-10-2019) को "झूठ रहा है हार?" (चर्चा अंक- 3482) पर भी होगी। --
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री रामनवमी और विजयादशमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार आपका आदरणीय शास्त्री जी मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिये।
हटाएंबादल को प्रतीक लेकर मानवीय संवेदनाओं का बहुत उत्कृष्ट प्रदर्शन।
जवाब देंहटाएंअनुपम सुंदर ।
सादर आभार आदरणीया दीदी रचना का अपनी टिप्पणी के ज़रिये मान बढ़ाने के लिये।
हटाएंमन्त्रमुग्ध करती...उत्कृष्ट संवेदनाओं से परिपूर्ण अत्यंत सुन्दर रचना।
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