सोमवार, 16 जनवरी 2017

मैं वर्तमान की बेटी हूँ



बीसवीं  सदी  में,

प्रेमचंद  की  निर्मला  थी   बेटी,

इक्कीसवीं  सदी   में,

नयना  / गुड़िया  या  निर्भया,

बन  चुकी   है   बेटी।


कुछ  नाम  याद   होंगे  आपको,

वैदिक  साहित्य   की  बेटियों  के-

सीता, सावित्री, अनुसुइया, उर्मिला ;

अहिल्या,     शबरी,    शकुंतला,

 गार्गी, मैत्रेयी, द्रौपदी या  राधा।


इतिहास  में

यशोधरा,  मीरा, रज़िया  या  लक्ष्मीबाई

साहित्य  में

सुभद्रा, महादेवी, शिवानी, इस्मत, अमृता,

 कृष्णा,  अरुंधति    या     महाश्वेता

  के   नाम  भी  याद  होंगे।


आज  चहुँओर   चर्चित  हैं-

सायना, सिंधु, साक्षी, सानिया ;

जहाँ    क़दम   रखती   हैं ,

छोड़   देती   हैं  निशानियाँ ।


घूँघट  से  निकलकर,

लड़ाकू-पायलट  बन  गयी  है  बेटी,

सायकिल  क्या  रेल-चालिका  भी  बन  गयी  है  बेटी,

अँतरिक्ष  हो  या  अंटार्टिका,

सागर   हो  या  हिमालय,

हो  मंगल  मिशन

या हो चुनौती भीषण,

अपना  परचम   लहरा   चुकी   है  बेटी,

क़लम   से   लेकर  तलवार  तक  उठा  चुकी  है  बेटी,

फिर   भी   सामाजिक  वर्जनाओं  की  बेड़ियों  में जकड़ी  है बेटी।


सृष्टि   की   सौन्दर्यवान   कृति  को,

परिवेश   दे  रहा   आघात   के   अमिट  चिह्न,

कौतुहलमिश्रित  वेदना   की  अनुभूति   से,

सजल   हैं    बेटी   के   सुकोमल   नयन,

हतप्रभ   है-

देख-सुन  समाज  की  सोच   का  चयन।



उलझा  हुआ   है  ज़माना,

अव्यक्त   पूर्वाग्रहों   में,

बेटी  के   माँ -बाप   को  डराते   हैं -

पुरुष   के  पाशविक, वहशी  अत्याचार ,

कुदृष्टि   में   निहित    अँधकार,

दहेज  से  लिपटे  समाज  के  कदाचार,

क़ानून  के  रखवाले   होते   लाचार ,

चरित्र-निर्माण  के  सूत्र   होते  बँटाधार,

भौतिकता   का   क्रूरतर   अम्बार।



बेटी   ख़ुद   को  कोसती   है,

विद्रोह   का  सोचती    है,

पुरुष-सत्ता  से  संचालित  संवेदनाविहीन  समाज  की,

विसंगतियों  के   मकड़जाल  से   हारकर,

अब  न लिखेगी   बेटी -

"अगले  जनम  मोहे   बिटिया  न  कीजो,

  मोहे    किसी    कुपात्र     को   न  दीजो।"


लज्जा, मर्यादा, संस्कार  की  बेड़ियाँ,

बंधन-भाव    की  नाज़ुक   कड़ियाँ,

अब  तोड़   दूँगी   मैं,

बहती   धारा   मोड़  दूँगी   मैं,

मूल्यों  की  नई  इबारत  रच  डालूँगी  मैं,

माँ   के  चरणों   में  आकाश   झुका   दूँगी ,

पिता   का  सर  फ़ख़्र   से  ऊँचा  उठा  दूँगी,

मुझे  जीने   दो   संसार   में,

अपनों  के  प्यार-दुलार  में,

मैं   बेटी   हूँ   वर्तमान   की!

मैं  बेटी   हूँ   हिंदुस्तान   की!!

 © रवीन्द्र सिंह यादव 


14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (16-10-2019) को    "जीवन की अभिलाषा"   (चर्चा अंक- 3490)     पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

    जवाब देंहटाएं
  2. सृजन का शब्द शब्द मन्त्रमुग्ध करता ..नील निर्झर सा स्त्रावित होता रचना को उत्कृष्टता की श्रेणी में स्थापित करता है ।

    जवाब देंहटाएं
  3. शानदार सृजन, भावों को बहुत स्पष्ट गति देता बेटियों के चरम उत्कर्ष का सुंदर काव्य।

    जवाब देंहटाएं
  4. लाजवाब पंक्तियाँ आदरणीय सर
    सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  5. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०८ -१२-२०१९ ) को "मैं वर्तमान की बेटी हूँ "(चर्चा अंक-३५४३) पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  6. बेटियों पर बहुत सुंदर कविता।

    जवाब देंहटाएं
  7. बेहतरीन रचना आदरणीय

    जवाब देंहटाएं
  8. सोचने के लिए मजबूर करती कविता ! हमको शर्म से अपना सर झुकाने को कहने वाली कविता !
    'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते' के उद्घोष के खोखलेपन को उजागर करती हुई कविता !

    जवाब देंहटाएं

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