शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

नैसर्गिकता



सभ्यता    के    सशंकित    सागर    में,

नत-नयन    नैसर्गिकता    की     नाव,

डूबने      न    पाए,

सुदूर      है   किनारा      तो    क्या,

आज     मांझी    को,

सरलता  का  सुरीला  संगीत  सुनाओ,

आई   है  भौतिकता

शो-केस  बनकर ,

बज  रही  है  ढोलक

अक्खड़  स्वभाव  की  तनकर।



मृत्यु    का  भय   त्यागकर,

साहस, संयम और संतुलन  के,

पंख    पतवार    में   लगाओ,

बैठकर  नियति  की  गोद  में,

सोई   हुई   करुणा   जगाओ।  


लौट  आयेंगे

हमारे  खोये  अलंकरण,

खड़े  होकर

अपनी  छत  पर

दाना  चुगने  चिड़िया  को  बुलाओ।

@रवीन्द्र  सिंह  यादव    

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (11-10-2019) को   "सुहानी न फिर चाँदनी रात होती"  (चर्चा अंक- 3485)     पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।  
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. मृत्यु का भय त्यागकर,

    साहस, संयम और संतुलन के,
    पंख पतवार में लगाओ,
    बैठकर नियति की गोद में,
    सोई हुई करुणा जगाओ।

    बहुत सुंदर सर ,सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छा लिखते हैं आप कभी मौका मिला तो आपसे एक बार जरूर रूबरू होंगे। वैसे हम भी एक वेबसाइट के लिए लिखते हैं आप चाहें तो इस लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं Zulf Shayari

    जवाब देंहटाएं
  5. लौट आयेंगे
    हमारे खोये अलंकरण,
    खड़े होकर
    अपनी छत पर
    दाना चुगने चिड़िया को बुलाओ।

    बहुत ही उम्दा सृजन ।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

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