तेरी हर शय
तेरी हर शर्त
है क़बूल मुझे ,
ज़िन्दगी तू
अब सिखा दे
जीने का उसूल मुझे।
कोई गुज़रा
कोई मुक़रा
कोई सिमटा
अपने - अपने दायरों में ,
मैं भी एक गवाह हूँ सफ़र का
यों ही न भूल मुझे।
ज़िन्दगी तू
अब सिखा दे
जीने का उसूल मुझे।
दिल में
उतर जाता है कोई
तितली सी ज़हानत लिए,
पंख जाते हैं उलझ
काँटों में
कहता है कोई
बेमुरब्बत फूल मुझे।
ज़िन्दगी तू
अब सिखा दे
जीने का उसूल मुझे।
मंज़िल की ओर
कारवाँ बढ़ने का
सिलसिला चलता रहा ,
हासिल हो न हो
मक़सद
इंतज़ार का सिला
करना है वसूल मुझे।
ज़िन्दगी तू
अब सिखा दे
जीने का उसूल मुझे।
ले डूबेगा एक दिन
क़तरे को
दरिया बनने का शौक़ (?)
दामन से लिपटकर
एक दिन सुनाएगा
दास्तां अपनी शूल मुझे।
ज़िन्दगी तू
अब सिखा दे
जीने का उसूल मुझे।
वक़्त फिसला है
रेत की तरह
"रवीन्द्र " के हाथों से,
सज्दे में झुक गया हूँ
समझ न
पुल से गुज़रने का महसूल मुझे।
ज़िन्दगी तू
अब सिखा दे
जीने का उसूल मुझे।
@रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 29 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंजीने का उसूल सीखना भी जरूरी है...
जवाब देंहटाएंबेहद लाजवाब सृजन
वाह!!!
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-04-2021) को चर्चा मंच "ककड़ी खाने को करता मन" (चर्चा अंक-4040) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
बहुत प्रभावी कविता रची रवीन्द्र जी आपने। यह ज़िन्दगी से कोई गुज़ारिश नहीं, जीने वाले का दर्द है।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंग़ज़ल देख ग़ज़ल की धार देख ,
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल कही है रवींद्र जी ने :
वक़्त फिसला है
रेत की तरह
"रवीन्द्र " के हाथों से,
सज्दे में झुक गया हूँ
समझ न
पुल से गुज़रने का महसूल मुझे।
ज़िन्दगी तू
अब सिखा दे
जीने का उसूल मुझे।
@रवीन्द्र सिंह यादव
veerujan.blogspot.com
मंज़िल की ओर
जवाब देंहटाएंकारवाँ बढ़ने का
सिलसिला चलता रहा ,
हासिल हो न हो
मक़सद
इंतज़ार का सिला
करना है वसूल मुझे।
सुन्दर......