रविवार, 20 सितंबर 2020

दो पल विश्राम के लिए


 छतनार वृक्ष की छाया में 

 दो पल सुस्ताने का मन है

वक़्त गुज़रने की चिंता में 

अनवरत चलने का वज़्न है

कभी बहती कभी थमती है बड़ी मनमौजन है पुरवाई 

किसी को कब समझ आई अरे यह तो बड़ी है हरजाई

बहती नदिया थम-सी गई लगती है 

श्वेत बादल सृजन श्रृंगार के लिए ठिठके हैं 

जल-दर्पण में मधुर मुस्कान का जादू नयनाभिराम

पुरवाई फिर बही सरसराती 

अनमने शजर की उनींदी शाख़ का 

एक सूखा पत्ता 

गिरा नदिया के पानी में

बेचारा अभागा अनाथ हो गया

पलभर में दृश्य बिखरा हुआ पाया

जल ने ख़ुद को हलचलभरा पाया

बीच भँवर का क़िस्सा कहे कौन 

किनारा-किनारा कभी मिल न पाया  

लहरों का अस्तित्त्व साहिल पर 

हो आश्रयविहीन विलीन हो गया

सदियों से प्यासा है तट नदिया का 

पर्णविहीन जवासा 

कलरव नाद में लवलीन हो गया      

शुभ्र वर्ण बादल का श्रृंगार हो पाया न हो पाया!

मैंने ख़ुद को सफ़र में चलते हुए पाया।

© रवीन्द्र सिंह यादव 

11 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 25-09-2020) को "मत कहो, आकाश में कुहरा घना है" (चर्चा अंक-3835) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

    जवाब देंहटाएं
  2. विश्रांति प्रदान करती रचना । आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ सितंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहद खूबसूरत रचना।

    जवाब देंहटाएं
  5. कभी बहती कभी थमती है बड़ी मनमौजन है पुरवाई

    किसी को कब समझ आई अरे यह तो बड़ी है हरजाई
    मन की विश्रांति... वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर मनभावन सृजन।

    जवाब देंहटाएं
  6. जीवन के आरोह-अवरोह की सुंदर अभिव्यक्ति।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  7. जीवन के उतर-चढाव को दर्शाती बहुत सुंदर सृजन ,सादर नमन आपको

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

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