बुधवार, 30 सितंबर 2020

तुम मूर्ख और अहंकारी हो

आग धधक रही है 

दिखलाई नहीं देती 

परिवेश में रह-रहकर गूँजती 

दर्दनाक चीख़ 

सुनाई नहीं देती 

लगता है तुम

संवेदना की फ़सल 

चट कर गए हो

तुम ज़िंदा हो 

लेकिन मर गए हो  

मुरझाए मुर्दा-से समाज का 

क्या कसूर 

सरकारों से कौन कहे

कि तुम मूर्ख और अहंकारी हो

है यह कवि का दस्तूर।   

© रवीन्द्र सिंह यादव


3 टिप्‍पणियां:

  1. हे निर्भीक कवि ! तुम किसको मूर्ख और अहंकारी कह रहे हो?

    बहरों को तुम्हारी बात सुनाई कैसे देगी?

    जवाब देंहटाएं
  2. गोपेश सर जी की प्रथम लाइने ले रही हूं,
    हे निर्भीक कवि तुम मरी हुई सरकार को क्यों झंझोर रहे हो,
    नैतिकता का पतन अब खड़े होकर नहीं बैठ कर देखो
    आदरणीय रविंद्र जी आप वाकई में एक सच्चे लेखक हैं जो हमेशा ही अपनी कविता के जरिए वास्तविकता को पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास करते हैं
    . कम शब्दों में ही आपने समाज अर्थव्यवस्था की टूटती रीढ़ को हम सबके सामने प्रस्तुत कर दिया..👌👍

    जवाब देंहटाएं
  3. वाकई अनुज रविन्द्र जी ,आप एक निर्भीक कवि है । समाज की असलियत को अपने शब्दों के माध्यम से सामने लाते हैं ।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

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