शनिवार, 3 अप्रैल 2021

न राहत की सुबह न चैन की दुपहरी है



बसंत को विदा हुए

कुछ अरसा ही बीता है 

कुछ पत्ते झड़ गए 

कुछ को नए रंगों में

खिलने का सुभीता है

बकाइन, पीपल, सेमल को देखो 

पुराने पत्तों के झरने के उपरांत 

कैसे सुनहले-हरे पल्लवों से 

लजाते हुए ख़ुद को ढक रहे हैं  

सुदूर अमराइयों में 

कोकिला की कूक है 

पकती फ़सल देख 

किसान को एमएसपी की हूक है

ख़ून-पसीने की कमाई 

कितनी अनिश्चित है 

किसान की समृद्धि 

किसी और के हाथ में सुरक्षित है 

आसमान में उमड़ते बादल 

दूर-दूर तक उठते धूल के ग़ुबार 

बेमौसमी बेचैनी के विस्तार 

नितांत ठूँठ को भी नहीं सुहाते 

विपरीतताओं से हम कब अघाते 

अन्न के दाने 

खेत से घर 

घर से बाज़ार-दर-बाज़ार 

लिए डोलता है कृषक 

इस सफ़र में 

घात लगाए बैठे लुटेरों से 

दिन-रात जूझता है कृषक 

पतझड़ के बाद 

फिर उगाएगा नए पौधे 

रोपेगा उम्मीद के नए पौधे

यह नियति-चक्र में 

शोषण-चक्रव्यूह की 

साँठगाँठ गहरी है

न राहत की सुबह 

न चैन की दुपहरी है। 

 © रवीन्द्र सिंह यादव 

 




6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर चाचा जी

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (०८-०४-२०२१) को (चर्चा अंक-४०३०) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।

    जवाब देंहटाएं
  3. शोषण-चक्रव्यूह की

    साँठगाँठ गहरी है

    न राहत की सुबह

    न चैन की दुपहरी है।

    सत्य को कहती सुंदर प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  4. यथार्थपूर्ण समसामयिक, तथा किसानों के दर्द को बयां करती सुंदर रचना, सादर शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणी का स्वागत है.

विशिष्ट पोस्ट

अभिभूत

बालू की भीत बनाने वालो  अब मिट्टी की दीवार बना लो संकट संमुख देख  उन्मुख हो  संघर्ष से विमुख हो गए हो  अभिभूत शिथिल काया ले  निर्मल नीरव निर...