मंगलवार, 29 नवंबर 2016

लकड़हारा




सर पर  सूखी  लकड़ियों  का 

भारी   गट्ठर    लादे

शहरों-

कस्बों   की  गलियों  में  

दीखता   था।



अंगौछे   की   कुंडली   बनाकर  

सर  और   सख़्त  सूखी  टहनियों  के  गट्ठर   के  केन्द्र  में   रखता  था

खोपड़ी   की   खाल   में  

लकड़ियों   की  चुभन   कम   होती   होगी...

कुल्हाड़ी   भी  गट्ठर    में  मुँह   छिपाये   रहती  थी।



लकड़ियाँ   बेचता   था  

उसी   को   जो   उसे   बुला   ले   

करता   सौदा   उसी    से    

जो   दाम   ठहरा  ले  

गट्ठर   से   कुल्हाड़ी   निकाल 

रख  देता   था   लकड़ियाँ 

ख़रीदार   की  बांछित   जगह   पर  .... ।



बोझ   उतर   जाने पर   

लेता  था   पुरसुकून   की   सांस 

पल  दो  पल  बीतने   के   उपरान्त 

सालने  लगती 

भीतर   दबी  हुई   फाँस .....।


कमाई   को   गिन-गिन   दोहराता 

अंगौछे  से  पसीना  पौंछता  

आटा   दाल    सब्ज़ी  

नमक   मिर्च  तेल

माँ   की  दवाई   

बच्चों   की जलेबी ...!



पैसा  मिला   लेकिन   बाज़ार  ने  ले  लिया 

बदले  में  थोड़ा  सामान  दे  दिया

लौटता  था  घर   अपने  

बुदबुदाता   हुआ 

कुछ और  वृक्ष   सूख जाएं  .....!

आधुनिकता  के  अंधड़   में

अब  लकड़हारा   कहीं   बिला  गया   है.......................!!

#रवीन्द्र सिंह यादव 
  

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