सुबकती रात
सह रही
कुछ ज़्यादा है
घनेरा अँधेरा इस बार,
चिरप्रतीक्षित राहत
आयेगी ज़रूर
रथ पर विहान के हो सवार।
सहमी हैं
शजर पर
सहस्स्रों सुकोमल पत्तियाँ,
सोचते हैं
मुरझाएँगे
खिलने से पहले
गुँचे, गुल और कलियाँ।
मुँह फेरकर
उदास चाँद ने ओढ़ ली है
कुहाँसे की घनी चादर,
ख़ामोश हैं
बुलबुल, तितली, भँवरे
पूस की रात में झरता
फाहे-सा नाज़ुक हिम-तुषार।
© रवीन्द्र सिंह यादव
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०४-०१-२०२०) को "शब्द-सृजन"- २ (चर्चा अंक-३५८०) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत प्यारी सुंदर रचना आदरणीय रविंद्र भाई आशा का ये विहान ही जीवन का आधार है । पूरी रचना तो सराहनीय है ही , पर ये पंक्तियाँ मुझे बहुत ही अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंमुँह फेरकर
उदास चाँद ने ओढ़ ली है
कुहाँसे की घनी चादर,
ख़ामोश हैं
बुलबुल, तितली, भँवरे
पूस की रात में झरता
फाहे-सा नाज़ुक हिम-तुषार। 👌👌👌
हार्दिक शुभकामनायें और आभार।
कोई मोमबत्ती जला दो भाई ! मैं भी देखूँगा सच्च ! सच्ची में अरे कलुआ! माचिस कहाँ है भाई ! मैंने तो सुना था, जिसकी लाठी उसकी भैंस !बताओ क्या जुलम है हमारी सरकार पर कि परवतिया अंदर पिट रही थी औरे ई जुम्मन मियाँ jnu के गेट पर चंदा माँग रहे थे औरे उहे चाँदी का ! सबहि निकम्मे निकले ! आने दो उहे कक्का को ! उहे उड़न खटोला वाला सी बी आई परीक्षण करवाऊँगा कि हमरे मुरीद उहे जेल के अंदर ठोके जा रहे थे दूध-मलाई खा के औरे इहे वर्दी धारी घर के मंत्रालय के अधीन रहते हुए उहे बामावर्त वाले नकलचियों को सलामी मारे रहे ! बताओ का ज़माना आ गया है कि तनख़्वाह हाक़िम से लेंगे औरे प्रचार बंदर छाप काला दाँत मंजन वाले का करेंगे ! अरे सरकार माचिस मिल गया औरे उहे तीन बजे भोरे में !अरे नमक हराम ! चल ले आ ! हमहु देखें तनिक ! ई ससुरा सच का है ! नहीं तो ये बागड़ बिल्ले तनिक देर में ही रायता फैला देंगे !और इस प्रकार इस लोकतंत्र की कहानी का अंत हुआ ! सभी मैली गंगा में मस्त नहा-धोकर अपने-अपने गृह को प्रस्थान किये !और हर तरफ शांति और ख़ुशियों के बीन बजने लगे ! "अरे मालविके, यह कौन मनुष्य है ?"जिसने हमारे कानों में चरस बो रखा है !महाराज ! अरे, कैमरा चल रहा है की नहीं !हाँ ! हाँ ! चला रहा ! ठीक है !अब हम हिमालय पर ध्यान लगा रहे हैं ! अरे महाराज ई वही दुन्नों देश द्रोही हैं ! एक है रवींद्र जी नाम का दिल्ली वाला ! औरे दूसर ऊ रिटायर प्रोफेसर गोपेश गाज़ियाबाद वाला ! का कहत हो ई तो दोनों हमरे बगलिये में हैं ससुर ! सभी सर्वाधिकार खाता धारी सेवक के पास सुरक्षित है ! इस बग़ावत का कोई भी अंश बिना पढ़े और लिखे नाही समझा जा सकता ! धूम्रपान दिमाग़ के लिए हानिकारक है ! जो कि आप सब ले रहे हैं ! अब किसका-किसका दिमाग़ ठिकाने पर है यह कहना अपने जान का जोख़िम लेना होगा ! सादर
हटाएं
जवाब देंहटाएंप्रकृति का खूबसूरत वर्णन ।
बेहद सुंदर रचना।
वाह!!रविन्द्र जी ,बहुत खूबसूरत सृजन !
जवाब देंहटाएंइस बार,
जवाब देंहटाएंचिरप्रतीक्षित राहत
आयेगी ज़रूर
रथ पर विहान के हो सवार।
वाह!!!
आशाओं के दीप जलाती बहुत ही सुन्दर रचना
लाजवाब...
बेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंवो सुबह कभी तो आएगी !