उठो चलो
जी चुके बहुत
सहारों में,
ढूँढ़ो न आसरा
धूर्तों-मक्कारों में ।
सुख के पलछिन
देर-सवेर
आते तो हैं,
पर ठहरते नहीं
कभी बहारों में ।
मतवाली हवाओं
का आना-जाना
ब-दस्तूर जारी है,
ग़ौर से देखो
छाई है धुँध
दिलकश नज़ारों में।
फ़ज़ाओं की
बे-सबब बे-रुख़ी से
ऊब गया है मन,
फुसफुसाए जज़्बात
दिल की
दीवारों में।
रोने से
अब तक भला
किसे क्या मिला?
मिलता है
जीभर सुकून
वक़्त के मारों में।
हवाएँ ख़िलाफ़
चलती हैं
तो चलने दे,
जुनून लफ़्ज़ों से
खेलने का
पैदा कर
क़लमकारों में।
मझधार की
उछलती लहरें
बुला रही हैं,
कब तक
सिमटे हुए
बैठे रहोगे
बस किनारों में ।
परिंदे भी
चहकते ख़्वाब
सजाते रहते हैं,
उड़ते हैं
कभी तन्हा
कभी क़तारों में।
© रवीन्द्र सिंह यादव
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-07-2020) को "सावन का उपहार" (चर्चा अंक-3770) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन .
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंअर्थपूर्ण असरार
सभी गहन भाव लिए।
मझधार की
जवाब देंहटाएंउछलती लहरें
बुला रही हैं,
कब तक
सिमटे हुए
बैठे रहोगे
बस किनारों में ।..वाह! सराहनीय सृजन।
लाजवाब अभिव्यक्ति ।
सादर