बहुत याद आता है
अल्हड़पन में लिपटा बचपन
बे-फ़िक्री का आलम
और मासूम लड़कपन
निकलता था
जब गाँव की गलियों से
बैठकर पिता जी के कन्धों पर
लगता था मानो छू लिया हो
ऊँचा आकाश किलकारी भरकर
खेत-हार घूमकर लौटते थे
सवाल-जवाब के दौर चलते थे
सुनाते थे पिता जी बोध-कथाऐं
कैसे लड़ोगे जब आयेंगीं बलाऐं
दोस्तों के साथ धमाचौकड़ी
खेल-खेल में धक्कामुक्की
अमिया इमली जामुन
सब आपस में साझा करते
झरबेरी के लाल-पीले बेर
बाग़ों में मीठे अमरुद खाया करते
अब तो बस यादों में सिमटा है बचपन
पुनि-पुनि हम क्यों जीना चाहें बचपन?
© रवीन्द्र सिंह यादव
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